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(२४) और अबै न कुदेव सुहावै, जिन थाके चरनन रति जोरी ।। टेक॥ कामकोहवश गहें अशन असि, अंक निशंक धरै तिय गोरी। औरनके किम भाव सुधारें, आप कुभाव-भारधर-धोरी॥१॥ तुम विनमोह अकोहछोहविन, छके शांत रस पीय कटोरी। तुम तज सेय अमेय भरी जो, जानत हो विपदा सब मोरी॥२।। तुम तज तिनै भजै शठ जो सो दाख न चारजन खाल निमोरी! हे जगतार उधार 'दौलको', निकट विकट भवजलधि हिलोरी ॥३॥
हे जिनेन्द्र ! मैं आपके चरणों की शरण में आ गया हूँ, अब मुझे अन्य कोई देव नहीं भाते, नहीं सुहाते, अच्छे नहीं लगते । ___ काम और क्रोध के वशीभूत होकर जो भोगों को स्वीकार करते हैं, शरीर पर अस्त्र-शस्त्र रखते हैं और अपने साथ स्त्री को रखते हैं वे औरों के क्या भाव सुधारेंगे, जो स्वयं ऐसे कुभावों खोटे भावों का बोझ ढोनेवाले हैं, कुभावों के स्वामी हैं! ___ आपने मोह का नाश कर दिया है, आप क्रोध और क्षोभ से रहित हैं और शांति-रस का पान करके तृप्त हैं । आपकी भक्ति को छोड़कर हमने अपरिमित विपदाओं को सहा है, उनका उपार्जन किया है, यह आप सब जानते हैं । __ आपको छोड़कर जो दुष्ट अन्य की भक्ति करता है, वह (मीठी) दाख को छोड़कर नीम की कड़वी निमोरी खाने के समान है। दौलतराम प्रार्थना करते हैं - हे जगत से पार उतारनेवाले, इस भव- समुद्र की विकट लहरों से हमें बाहर निकालकर हमारा उद्धार करो, अपने निकट लो, अर्थात् हमें भी मोक्ष की प्राप्ति हो।
अंक - गोद; धोरी = मुखिया, प्रधान; कोह - क्रोध; छोह - क्षोभ ।
दौलत भजन सौरभ