________________
तुम सुनियो श्रीजिननाथ, अरज इक मेरी जी॥टेक॥ तुम बिन हेत जगत उपकारी, वसुकर्मन मोहि कियो दुखारी, ज्ञानादिक निधि हरी हमारी, द्यावी सो मम फेरी जी॥१॥ मैं निज भूल तिनहि संग लाग्यो, तिन कृत करन विषय रस पाग्यौ, तारौं जन्म-जरा दव-दाग्यौ, कर समता सम नेरी जी॥२॥ वे अनेक प्रभु मैं जु अकेला, चहुँगति विपतिमांहि मोहि पेला, भाग जगे तुमसौं भयो भेला, तुम हो न्यायनिवेरी जी॥३॥ तुम दयाल बेहाल हमारो, जगतपाल निज विरद समारो, ढील न कीजे बेग निवारो, 'दौलतनी' भवफेरी जी॥४॥
हे जिनेन्द्र! मेरी अरज, मेरा निवेदन सुनिए।
आप बिना किसी निजी स्वार्थ के जगत के हितकारी हैं, भला करनेवाले हैं। अष्ट कर्मों ने मुझे दुःखी कर रखा है। हमारे ज्ञान आदि गुणों को हर लिया है, उन पर आवरण कर रखा है । उस स्थिति से मैं दूर हो जाऊँ, फिर जाऊँ, वापस हो जाऊँ इसलिए आपका ध्यान, चितवन, स्मरण करता हूँ।
मैं स्त्र-रूप को भूलकर उन कर्मों के साथ ही लग गया और उनके कारण इंद्रिय-विषयों में ही लगा रहा। जिससे जन्म, रोग एवं बुढ़ापेरूपी दाह में जलता रहा। मुझे अपने समीप लेकर समता से इन्हें शान्त करो। __ वे कर्म अनेक हैं और मैं अकेला हूँ। उन्होंने मुझे चारों गतियों में पैला है, पीस दिया है। अब मेरै भाग्य जगे हैं कि मैं आपके साथ आ गया हूँ। आप ही न्याय करके इन सबमें मुझे मुक्त करो - निवेरो।
आप दयालु हैं और हमारा हाल बेहाल है। हे जगतपाल! आप अपनी महिमा अपने विरद को संभालो। दौलतराम कहते हैं कि बिना कोई देर किए तुरन्त मुझे निवारो; दुःखों से, भवप्रमाण से बाहर निकालो।
दौलत भजन सौरभ