________________
(१३) निरखत सुख पायौ जिन मुखचन्द ॥ टेक॥ मोह महातम नाश भयौ है, उर अम्बुज प्रफुलायौ। ताप नस्यौ बढि उदधि अनन्द ।। १॥निरखत.॥ चकवी कुमति बिछुर अति विलखै, आतमसुधा स्वायौ। शिथिल भए सब विधिगनफन्द॥२॥निरखत. ॥ विकट भवोदधिको तट निकट्यौं, अघतरुमूल नसार्यो। 'दौल' लह्यौ अब सुपद स्वछन्द ॥३॥निरखत.॥
श्री जितेन्द्र के मुखरूपी चन्द्रमा के दर्शन पाकर अतीव सुख की अनुभूति हुई अर्थात् अत्यन्त सुख मिला। ____ मोहरूपी महान अंधकार का नाश हो गया, जिससे हृदयरूपी कमल विकसित हुआ है, आनन्दित हुआ है । तनाव का ताप नष्ट हो गया है और आनन्द्र का सागर उमड़ने लगा है।
कुमतिरूपी चकवी आत्मारूपी चकवे से बिछुड़ने से विरह के कारण दु:खी होकर रोने लगी है । आत्मा में अमृतरस झरने लगा है। कर्म के बंधन अब ढीले पड़ने लगे हैं। ___ अपार और दुष्कर संसार-समुद्र का तट निकट दीखने लगा है और पापरूपी वृक्ष का मूल आधार 'मोह' का नाश हुआ है। दौलतराम कहते हैं कि अब विभावों के तनाव से मुक्त, निजस्वरूप की स्वतंत्रता की प्रतीति/प्राप्ति होने लगी है।
दौलत भजन सौरभ