________________
(१८) प्यारी लागै म्हाने जिन छवि थारी॥टेक॥ परम निराकुलपद दरसावत, वर विरागताकारी। पट भूषन विन पै सुन्दरता, सुरनरमुनिमनहारी ॥१॥ जाहि विलोकत भवि निज निधि लहि, चिरविभावता टारी। निरनिमेषतें देख सचीपती, सुरता सफल विचारी ॥२॥ महिमा अकथ होत लख ताकी, पशु सम समकितधारी। 'दौलत' रहो ताहि निरखनको, भव भव टेव हमारी॥३॥
हे जिनेश्वर! आपकी यह मुद्रा, यह छवि हमें प्यारी लगती है, भली लगती है।
यह निराकुल पद को दिखानेवाली और श्रेष्ठ विरागता को उत्पन्न करनेवाली है। वस्त्र व आभूषण-रहित मुद्रा अर्थात् दिगम्बर मुद्रा की नैसर्गिक सुन्दरता सुर, नर और मुनियों के मन को हरनेवाली हैं, आकर्षित करनेवाली है।
जिनके दर्शन से अपने स्वरूप-निधि की प्राप्ति होती है और अनादि से चली आ रही विभावों की श्रृंखला टल जाती है। जिनकी ओर अपलक निहारकर इन्द्र ने अपने इन्द्रपद को धन्य माना, सफल माना।
आपकी अकथ - कही न जा सकनेवाली महिमा को देखकर, पशु-समान वृत्ति भी समतारूप हो जाती है । दौलतराम कहते हैं कि हे भगवन ! जन्म-जन्म में मैं आपके दर्शन करता ही रहूँ यह मेरा स्वभाव - आदत बन जाए।
सुरता - देव पर्याय, होश।
दौलत भजन सौरभ