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(२१) भविन-सरोरूहसूर भूरिंगुनपूरित अरहता। दुरित दोष मोष पथघोषक, करन कर्मअन्ता॥ भविन.॥ दर्शबोधौं युगपतलखि जाने जु भावऽनन्ता । विगताकुल जुतसुख अनन्त विन, अन्त शक्तिवन्ता॥१॥भविन. ।। जा तनजोतउदोतथकी रवि, शशिदुति लाजंता। तेजधोक अवलोक लगत है, फोक सचीकन्ता ॥ २॥ भविन.॥ जास अनूप रूपको निरखत, हरखत हैं सन्ता। जाकी धुनि सुनि मुनि निजगुनमुन, पर-गर उगलंता॥३॥ भविन.॥ 'दौल' तौल विन जस तस वरनत, सुरगुरु अकुलंता। नामाक्षर सुन कान स्वानसे, रांक नाकगंता ॥ ४ ॥ भविन.
हे सर्वगुणसम्पन्न अरिहंत! आप भव्यजनरूपी कमलों को विकसित करनेवाले सूर्य हैं । पापों का नाशकर मोक्ष की राह बतानेवाले हैं। आपने कर्मराशि का अन्त कर दिया है।
युगपत ज्ञान और दर्शन से आपने अनन्त भावों को देखा व जान लिया है। आप निराकुल सुख के और अनन्त बल के धारी हो।
जिनकी तन की धुति (प्रभा) के समक्ष, रवि/सूर्य का तेज व चन्द्रमा की कान्ति भी लजाती है, फीकी पड़ जाती है। आपके उस अनुपम तेजपुंज को देखने पर इन्द्र जैसे तेजस्वी का तेज भी फीका व हल्का लगता है।
जिनके अद्भुत सुन्दर रूप को देखकर संतजन हर्षित होते हैं। जिनकी दिव्यध्वनि को सुनकर मुनिजनों को निज गुणों का भान होता है और वे मिथ्यात्वरूपी विष को उगल देते हैं, बाहर निकाल देते हैं।
दौलत भजन सौरभ