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(१६) शिवमगदरसावन रावरो दरस। टेक।। परमपद-चाह-दाह-गद-नाशन, तुम बचभेषज-पान सरस॥१॥ गुणचितवत निज अनुभव प्रगटै, विघटै विधिठग दुविध तरस।॥ २॥ 'दौल' अवाची संपति सांची, पाय रहै थिर राच सरस ॥३॥
हे भगवन् ! आपके दर्शन - मोक्षमार्ग-प्रकाशक हैं, 'मोक्ष का मार्ग दिखानेवाले हैं।
पुद्गल की चाहरूपी दाह का, विष का, रोग का नाश करनेवाले आपके सुवचन - परम औषधिरूप हैं जिनका सेवन, चिन्तन, मनन, अनुगमन सरस है, रस से भरा हुआ है। __ आपके गुण-चिंतवन से निज के गुणों का भान होता है, हममें भी वे गुण प्रकट होते हैं और पाप-पुण्यरूपी कर्म-ठग तरस कर भाग जाते हैं।
दौलतराम कहते हैं कि अव्यक्त, अकथ व अवर्णनीय · जिसका कथन नहीं किया जा सकता ऐसो आत्मगुणों की संपत्ति को पाकर उसमें स्थिर हो जाओ अर्थात् अपने निज स्वरूप में मगन हो जाओ, जो रस से भरपूर है ।
रावरी - आपका
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दौलत भजन सौरभ