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(१७) जिन छवि तेरी यह, धन जगतारन॥टेक ।। मूल न फूल दुकूल त्रिशूल न, शमदमकारन भ्रमतमवारन ॥ जिन. ।। जाकी प्रभुताकी महिमातें, सुरनधीशिता लागत सार न। अवलोकत भविथोक मोख मग, चरत चरत निजनिधि उरधारन॥१॥ जजत भजत अघ तौ को अचरज? समकित पावन भावनकारन। तासु सेव फल एव चहत नित, 'दौलत' जाके सुगुन उचारन॥२॥
है जिनेन्द्र! धन्य है तेरी यह छवि/मुदा, जो जग से पार उतारनेवाली है। जिसके न कोई जटा या वल्कल है, न पुष्पमाल है; न वस्त्र है .. न त्रिशूल है। यह (आपकी छवि) भ्रमरूपी अंधकार को दूर करनेवाली, शान्ति और संयम की साक्षात् प्रतिमूर्ति है।
आपकी प्रभुता की, स्वामीपने की महिमा के आगे इन्द्र का पद भी सारहीन, फीका लगता है । भव्यजनों का समूह जिसे देखकर मोक्ष का मार्ग देखता है और वैसा आचरण कर अपनी आंतरिक निधि को धारण कर लेता है, पा लेता है।
आपकी पूजा करने से पाप दूर हो जाते हैं, भाग जाते हैं, तो इसमें क्या आश्चर्य है ! उससे सम्यक्त्व प्रकट होता है और भाव पवित्र होते हैं । दौलतराम यह फल पाने हेतु आपके गुणगान व भक्तिसेवा नित्य प्रति करना चाहते हैं।
मूल - जटा, वल्कल, छालटुकूल = वस्त्र; दमकारण - संयम, इन्द्रियों का दमन करनेवाला; जजत = पूजा करना; सुरनधीशिता = इंद्रपद।
दौलत भजन सौरभ