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के योग से आपकी दिव्यध्वनि सुनने का सुयोग प्राप्त होता है जिसे सुनकर विभ्रम दूर हो जाता है।
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आपके गुणों का चिन्तन करने से निज व पर का भेदज्ञान व विवेक होता है और उदय में आयी विपदाएँ भी नष्ट हो जाती हैं, छिन्न-भिन्न होकर बिखर जाती हैं। आप जगत के भूषण हैं, सब दोषों से रहित हैं, सब महिमा के धारक हैं, सब विकल्पजाल से मुक्त हैं ।
आप शुद्ध चेतन स्वरूप हैं, अबाधित हैं। अद्भुत, परमपावन, परम आत्मा हैं। शुभ और अशुभ दोनों प्रकार के विभावों का आपने अभाव कर दिया है और अक्षय स्वाभाविक परिणति से युक्त हैं ।
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आप श्रीर हैं, अठारह दोषों से रहित हैं। अरहंत अवस्था से अनन्तचतुष्टय ( अनन्त दर्शन - ज्ञान- सुख व वीर्य) सहित गंभीर मुद्रा में सुशोभित हैं । मुनिकी स्तुति करते हैं, भक्ति करते हैं, आप
आदि केवलज्ञानरूपी लक्ष्मी के धारक हैं।
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आपके शासन में अर्थात् आप द्वारा दिखाए गए मोक्षमार्ग पर चलकर अगणित जीव मोक्ष गए हैं, जा रहे हैं और सदैव जाएँगे। इस खारे भव सागर के दुःखों से दुःखी जीवों को आपके अतिरिक्त, आपके सिवा अन्य कोई तारनेवाला नहीं है ।
मेरे दुःखरूपी विष को हरने के लिए, शमन करने के लिए आप ही निमित्त कारण होकर इलाज के एक साधन हैं, यह देख - जानकर मैं आपकी शरण में आया हूँ और सदा से/ अनादि से भोग रहे अपने दुःखों को व्यक्त कर रहा हूँ, कह रहा हूँ।
मैं अपने स्वरूप को भूलकर भ्रमता फिर रहा हूँ, भटक रहा हूँ, इसी के परिणामस्वरूप पुण्य-पापरूपी फल पा रहा हूँ। मैं अपने को पर का/पर को अपना कर्ता समझकर पर में/अन्य में ही अपने इष्ट और अनिष्ट की मान्यता करता रहा हूँ।
अज्ञानवश में आकुल हुआ, जैसे हरिण मृगतृष्णावश आकुल होता है। मैंने अपनी इस देह की दशाओं को अपना ही जाना और निज स्वरूप के सार का कभी अनुभव नहीं किया।
दौलत भजन सौरभ