________________
(४) हे जिन तेरे मैं शरणै आया। तुम हो परमदयाल जगतगुरु, मैं भव भव दुःख पाया ॥ हे जिन.॥ मोह माहदुठ घेर रह्यौ मोहि, भवकानन भटकाया। नित निज ज्ञानचरननिधि विसस्यो, तन धनकर अपनाया।॥१॥ हे जिन.॥ निजानंदअनुभवपियूष तज, विषय हलाहल खाया। मेरी भूल मूल दुखदाई, निमित मोहविधि थाया॥२॥ हे. जिन.॥ सो दुठ होत शिथिल तुमरे ढिग, और न हेतु लखाया। शिवस्वरूप शिवमगदर्शक तुम, सुयश मुनीगन गाया॥३॥ हे जिन.॥ तुम हो सहज निमित जगहितके, मो उर निश्चय भाया। भिन्न होहुं विधितै सो कीजे, 'दौल' तुम्हें सिर नाया॥४॥ हे जिन.॥
हे जिनदेव ! मैं आपकी शरण में आया हूँ। मैंने जन्म-जन्मान्तरों में अनेक दुख पाए हैं । आप परम दयालु हैं, कृपालु हैं । मुझे अति दुष्ट मोह ने घेरकर इस संसार-समुद्र में बहुत भटकाया है, जिसके कारण मैं अपने ज्ञान और आचरणरूपी निधि-संपत्ति को भी भूल गया और तन धन को ही महत्त्वपूर्ण मानकर इन्हें ही अपनाता रहा, उनमें ही रत रहा।
अपने आत्मा के आनन्द की अमृत-सरीखी अनुभूति को छोड़कर, हलाहलविष का सेवन करता रहा। मेरी यह भूल अत्यन्त दुःखमयी है, जिसके लिए मैंने मोहनीय कर्म को निमित्त ठहराया है।
वह दुष्ट आपके ही समीप शिथिल हुआ है, आपके अतिरिक्त अन्य कोई इसका आधार हेतु नहीं है। आप साक्षात् मोक्ष-स्वरूप को/मोक्षमार्ग को दिखानेवाले हैं, मुनिजन सदैव आपका यशगान करते हैं, स्तुति करते हैं, वंदनास्मरण करते हैं।
दौलत भजन सौरभ