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(११) निरखत जिनचन्द्र-बदन, स्वपदसुरुचि आई॥टेक॥ प्रगटी निज आनकी, पिछान ज्ञान भानकी, कला उदोत होत काम, जामिनी पलाई॥१॥ सास्वत आनन्द स्वाद, पायो विनस्यो विषाद, आनमें अनिष्ट इष्ट, कल्पना नसाई॥२॥ साधी निज साधकी, समाधि मोहव्याधिकी, उपाधिको विराधिक, अराधना सुहाई ॥३॥ धन दिन छिन आज सुगुनि, चिंतें जिनराज अबै, सुधरे सब काज 'दौल', अचल सिद्धि पाई॥४॥
चन्द्रमा के समान सुन्दर जिनेन्द्र के रूप के दर्शन से स्वपद की रुचि जागृत हुई है अर्थात् पुद्गल से भिन्न अपने चैतन्य स्वरूप को बोधि हुई है।
स्व की व पर-अन्य की पहचान व अनुभूतिरूपी ज्ञानसूर्य के उदित होते ही कामनाओं-इच्छाओंरूपी रात्रि भाग गई और निजस्वरूप की बोधि हुई है।
अपने अखण्ड व नित्य आत्मानुभूति के स्वाद से सब प्रकार के विषाद मिट गए हैं और पर अर्थात् पदगल के प्रति हो रही इष्ट व अनिष्ट की सारी कल्पनाएँ नष्ट हो गई हैं।
अपने आत्म-स्वभाव की साधना से, चिन्तन से मोहरूपी व्याधि समाधि में अन्तर्लीन हो गई है, समा गई है। सभी उपाधियों को छोड़कर, स्वभाव की आराधना भली लगने लगी है।
आज का यह क्षण, यह दिन अत्यन्त शुभ है, धन्य है, गुण सहित है कि जिनराज के स्वरूप का चिन्तन होने लगा है। दौलतराम कहते हैं कि मैंने यह अचल व स्थायी सिद्धि पा ली है, अब मेरे सभी कार्य सिद्ध हो जाएँगे, सुधर जाएँगे, ठीक हो जाएँगे। जामिनी - यामिनी = रात्रि।
दौलत भजन सौरभ