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जिस प्रकार बादलों की गरज से मोर मुदित हो जाते हैं। प्रसन्न हो जाते हैं, उसकी प्रसन्नता का कोई अन्त ही नहीं रहता; जैसे भिखारी को धन प्राप्ति से प्रसन्नता होती है उसी प्रकार जिनेन्द्र के दर्शन से तुरन्त ही मोहरूपी धूल झड़ जाती है अर्थात् मोह का नाश होता है और भव्यजनों के समस्त विकार नष्ट हो जाते हैं।
जिनकी सुन्दरता को देखकर इन्द्र भी लजाता है, ऐसी अद्भुत सुन्दरता के धारी आपके दर्शनकर अपनी अनुभूति/स्वानुभूति अमृतरस सी उमड़ने लगती है, जो कामदेव जैसे शत्रु को भी पराजित करती है।
आपके पास/साथ न कोई त्रिशूल हैं, न वस्त्र हैं, न कोई स्त्री हैं और न कोई माला है, फिर भी आपकी मुद्रा मुनियों के मन को आनन्द से भरनेवाली है।आनन्द देनेवाली है। जिसके क्रोध से नेत्र लाल नहीं है अर्थात् जिनके क्रोध नहीं है, न कोई चिह्न है और न कोई भ्रम या धोखा और न शरीर की कोई टेढ़ी चितवन है।
हे जगतारी ! इस प्रकार आपके कोई क्रोध आदि विभाव भी दिखाई नहीं देते, आपकी पूजा से पाप के ढेर भी नष्ट हो जाते हैं, हट जाते हैं और ध्यान से मोक्ष की ओर विस्तार होता है। कामधेनु, कल्पवृक्ष और चिन्तामणिरत्न केवल एक भत्र को ही सुखी बनानेवाले हैं किन्तु आप महान दानी हैं। आप ऐसे दातार हैं कि जो प्रसन्नता से आपकी छवि लखता है आप उन्हें अपने समान पद प्रदान कर देते हैं।
देवगण भी आपकी महिमा का वर्णन नहीं कर पाते, देवताओं के गुरु वृहस्पति भी आपकी महिमा का वर्णन करने में सक्षम नहीं। दौलतराम कहते हैं कि मैं आपसे इसके अलावा क्या चाहूँ कि मुझे आपके समान पद की प्राप्ति हो।
ओर = अन्त, मोड़।
दौलत भजन सौरभ