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मैं आयौ, जिन शरन तिहारी। मैं चिरदुखी विभावभावते, स्वाभाविक निधि आप विसारी ।। मैं॥ रूप निहार धार तुम गुन सुन, वैन होत भवि शिवमगचारी। यौं मम कारण के काम तुम, तुमरी संव एक उर धारी॥१॥ मिल्यौ अनन्त जन्मते अवसर, अब विनऊँ हे भवसरतारी। परम इष्ट अनिष्ट कल्पना, 'दौल' कहै झट मेट हमारी।।२।।
हे जिनेन्द्र ! मैं आपकी शरण में आया हूँ। मैं (आप जैसी) अपनी स्वाभाविक निधि को भूलकर अपने ही विभावों के कारण अनादिकाल से - दीर्घकाल से दुःखी हूँ। ___ आपके सुन्दर रूप को देखकर, आपके गुणों को हृदय में धारणकर, आपके वचनामृत को सुनकर भव्यजन मोक्ष- मार्ग पर गमन करते हैं। मैं अपने स्वरूप में स्थिर हो सकूँ, इस कार्य के सम्पन्न होने के लिए आप ही कारण हो, आप ही निमित्त हो; इसलिए आपका स्मरण-वन्दन ही हृदय में धारण करने योग्य है। ____ अनन्त जन्मों के बाद/अनेक जन्मों के बाद ऐसा अवसर मिला है, आप भव से तारनेवाले हो, अब यह निश्चय करके आपकी वन्दना करता हूँ। दौलतराम विनती करते हैं कि हे भगवन ! अब हमारी इष्ट और अनिष्ट की भावना तुरन्त मिट जाय अर्थात् राग-द्वेष की भावना नष्ट हो जाय।
दौलत भजन सौरभ