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चलें, मन-के-पार
कहते हैं, किसी सम्राट ने एक साधारण-सा कपड़ा महंगे भाव में खरीद लिया । मन्त्री को यह अच्छा न लगा । मन्त्री ने कहा- मैं ऐसा कपड़ा बना सकता हूँ जिसकी प्रशंसा हर समझदार करेगा, किन्तु उसे बनाने में महीनों लगेंगे और धनराशि भी अनाप-शनाप खर्च होगी । सम्राट ने उत्सुकतावश मन्त्री को वैसा कपड़ा बनाने की मंजूरी दे दी ।
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होली का दिन । मंत्री ने कहा, जनाब ! पौशाक तैयार है । सम्राट ने सोचा, इतनी महंगी पौशाक को सभासदों के बीच ही पहना जाये । सम्राट ने अपनी पहनी हुई पौशाक उतार दी । मन्त्री नई पौशाक पहनाने लगा । हाथों से ऐसा कुछ कर रहा था मानो पौशाक पहनायी जा रही है, पर सभासद दंग, अचम्भे में भी । न कोई पौशाक, न कपड़ा, सिर्फ अभिनय । मन्त्री ने सम्राट से कहा, क्यों सभासदों ! कैसी लगी यह पौशाक ?
सच्चाई कहने की हिम्मत किसी की न हुई । कौन स्वयं को मूर्ख कहलाए, क्योंकि समझदार ही इसकी प्रशंसा कर सकता है ।
सबने कहा, बहुत खूब, बड़ी सुन्दर, अभिनव ।
सम्राट ने कहा, तुम सब प्रशंसा कर रहे हो, अतः पौशाक निश्चित ही सुन्दरतम बनी है । मैं मन्त्री को इनाम देता हूँ, मगर जब सम्राट ने आईने में खुद को निहारा तो ...? सम्राट ने कहा, यह क्या ? मन्त्री बोला, गुस्ताखी माफ हो । यह सत्य है । नग्नता से बेहतर और कोई पौशाक नहीं है।
जीवन की ज्योति टिकी है सत्य पर झूठ पर नहीं । वह आशा पर नहीं, अस्तित्व पर निर्भर है । अस्तित्व सत्य है, अस्तित्व को स्वीकार करना आस्तिकता है | सपना नास्तिकता है । सपना अस्तित्व नहीं, सिर्फ जीवन में लगते अधूरेपन की आशा है, कल्पना है, मन की जम्हाई है ।
सपना सुदर्शन है वर्तमान में भविष्य का । पर सपना कभी सत्य होता है ? पता नहीं, मनुष्य सपने में कहाँ-कहाँ की देख लेता है । जिसे कभी आँखों से देखा भर नहीं, उसे भी देख लेता है ।
एक अन्धा व्यक्ति कह रहा था, आज मैंने स्वर्ग देखा । मैंने कहा, तुमने भी क्या खूब देखा ! अपने आपको देखा नहीं और स्वर्ग देख चुके हो । अन्धा
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