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अस्तित्व की जड़ों में पथ जो एक व्यक्ति के लिए अनुकूल साबित होता है, अनिवार्य नहीं कि वह दूसरे के लिए भी सही सिद्ध हो । यदि ऐसा होता, तो न तो हजारों दर्शन पैदा होते, न तर्क-की-तलवारें चलतीं, न ही चिन्तन के नये-नये द्वार उघड़ते । सब एक के पीछे एक चलते- भेड़-धसानवत् । दुनिया में हजारों दर्शन विकसित हुए । पर कोई भी दर्शन पूरी तरह अजेय न रह सका ।
हर मनुष्य का अपना व्यक्तिगत धर्म दर्शन है । हमें अपने ही धर्म का अनुसरण और अनुमोदन करना होता है । विश्व के सारे धर्म हमारे अपने हैं, पर आत्म-धर्म से बढ़कर दुनिया का कोई धर्म नहीं है । दूसरे लोग हमारा मार्ग-दर्शन कर सकते हैं, पर मार्ग-संचालन का उत्तरदायित्व तो स्वयं व्यक्ति पर है।
___ अस्तित्व जैसा है उसे उसी रूप में स्वीकार करना जीवन का परम विज्ञान है । मानसिक तनाव एवं जीवन-भटकाव स्वयं की भूमिका की अस्वीकृति के कारण है । जीवन के वर्तमान को दुःखी मानना और भविष्य के सुख की आशा से प्रतीक्षा करना अप्राप्त के लिए प्राप्त को खोना है।
अधूरापन मन की अभिव्यति है । मन का आईना आशा है । आशा की बढ़ोतरी पूर्णता को चुनौती है ।
__ आशा मन के कारण है और सपने आशा के कारण । सपनों में जीना सत्य को दुलत्ती मारना है । स्वप्न का सुख व्यक्ति के मुंह पर तमाचा है । सपने में, सोये-सोये तो बहुत पाया, पर जगे तो माथा चकराया । हाथ लगा सिर्फ सूनापन, भावों का पक्षाघात, निराशा । आखिर सपने में मिलकर भी क्या मिला । सपना धोखा है, भटकाव है, झूठ है । आदमी अभ्यासी है सपनों में जीने का । बिना सपनों के जीना दुभर बन गया है । मन से उभरती अदृश्य पुकार उसे चित्कार के रूप में सुनाई देती है । वह करुणार्द्र हो जाता है और अपनी मनोतृष्णा की पूर्ति के लिए दिन-रात लगा रहता है - जागकर भी, सोकर भी, सपने में भी ।
सपना सान्त्वना है और हर सान्त्वना सुन्दर झूठ है | आदमी झूठ की डोर पकड़कर ही जिन्दगी आगे खींचता रहता है । झूठ आदमी से इतना हिलमिल गया है कि वह बिना झूठ के जी नहीं पाता ।
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