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चलें, मन-के-पार निकला, जब उसकी मुक्ति के लिए सहयोगी बनने हेतु मैं वचनबद्ध हुआ । वह व्यक्तित्व वास्तव में उसके मृत भाई चन्द्रसेन का प्राणतत्त्व था । मरते समय उसके मन में साधना के प्रति बेहद लगाव जगा था । बारीकियों को छूने के बाद मैंने पाया कि मनोव्यक्तित्व की एकाग्रता व्यक्ति के साथ किस प्रकार संबद्ध रहती है ।
साधना की शुरुआत में शक्तिपात की उपयोगिता है; किन्तु मन से मुक्त होकर निर्विकल्प होने के लिए शक्तिपात के बजाय स्वयं का शक्ति-जागरण अधिक श्रेयस्कर है । शक्तिपात पर चलने की मैंने भी कोशिश की, पर मैंने स्वयं को उससे अतिशीघ्र मुक्त भी कर लिया । प्राप्त अनुभव यही बतलाता है कि शक्तिपात से मन केवल उसी को देखना चाहता है, जो शक्तिपात करता है । शक्तिपात से जो मंजिल मिलती है, वह मंजिल नहीं होती वरन एक सोपान ही होती है । हाँ, आत्मजाग्रत साधक का संस्पर्शन
और दर्शन स्वयं की ऊर्जा के जागरण में स्वीकारना चाहिये, पर यह कृपा नहीं, मात्र सहकारिता है । यह मात्र शान्त मन की समदर्शिता का वितरण है । असली गुरु तो वीतरागता की मस्ती में जीता है । जिसके पास बैठने और जीने से तुम्हारा मन शान्त, निर्विकल्प और निर्विकार बनता है, वही तुम्हारे लिए गुरु है । जिसे निहारने से तुम्हारा लक्ष्य तुम्हारी आंखों से ओझल न हो, वही तुम्हारा भगवान् है ।
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