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परमत्यागी एवं तपस्वी ऐसे आचार्यदेव श्रीमद् विजय जगच्चन्दसूरीश्वरजी म. सा. तथा न्यायमर्मज्ञ अध्यात्मरसिक मुनिराजश्री (वर्तमान में पंन्यास) पुण्यरत्नविजयजी म. सा. एवं विद्वद्वर्य मुनिवर (वर्तमान में पंन्यास) श्रीयशोरत्नविजयजी म. सा. को दोनों टीका के संशोधनार्थ नम्र विज्ञप्ति की और अनेकविध कार्यों की व्यस्तता होते हुए भी उदारता से उन्होंने मेरी अरज का स्वीकार किया तथा साद्यन्त टीकाद्वय का सूक्ष्म दृष्टि से संशोधन कर के दोनों टीका की उपादेयता को बढ़ा दी है, तदर्थ में उनके प्रति अत्यन्त ऋणी हूँ और इस तरह वे सदा मेरे उत्साह को बढावे- यही उनसे मेरी साग्रह नम्र विज्ञप्ति। मद्रास में पूज्य आचार्यदेव श्रीमद् जगच्चन्द्रसूरिजी म. सा. के चरणकमलों में बैठ कर संशोधन के दौरान मैंने अनेकविध अमूल्य सूचनाएं प्राप्त की एवं उनकी मौलिक प्रतिभा का भी कुछ अनुपम आस्वाद प्राप्त किया। मरुभूमिस्थित उपर्युक्त दोनों नव्य-प्राचीनन्यायनिष्णात संशोधक बन्धुमुनिवरों ने भी काफी उद्यम कर के टीकाद्वय का संमार्जन-परिमार्जन किया है जो उनसे प्राप्त शुद्धि-वृद्धि आदि से भली-भाँति मालुम होता है। टीका के अनेक विषयों के बारे में अनेकशः लम्बी-चौडी चर्चा पत्रव्यवहार से करने में उन्होंने अप्रमत्तभाव दीखाया है वही उनकी खंत, बहुश्रुतता एवं संशोधनस्वरूप श्रुतभक्ति का द्योतक है। मेवाडदेशोद्धारक आचार्यदेवश्रीमद् जितेन्द्रसूरिजी म. सा. ने भी संशोधनकार्य में उदारता से सामने चलकर जो सहायता प्रदान की है तदर्थ मैं उनका भी आभारी हूँ। टीकाद्वय के कुछ स्थलों का संशोधन परमपूज्य सिद्धान्तदिवाकर आचार्यदेवेश श्रीमद् जयघोषसूरीश्वरजी महाराजा, विद्यागुरुदेव तर्करत्न मुनिराजश्री (वर्तमान में आचार्य) जयसुन्दरविजयजी महाराजा एवं विद्वद्वर्य मुनिप्रवर (वर्तमान में आचार्य) पूज्य अभयशेखरविजयजी महाराजा आदि ने भी किया एवं अपना अनूठा सूझाव भी प्रदर्शित किया। एतदर्थ मैं उन सबका आभारी हूँ। अनेक बहुश्रुत महनीय आचार्य भगवंतों एवं मुनिपुङ्गवों की संशोधनाग्निपरीक्षा में संस्कृत-परिष्कृत-संमार्जित-संवर्धित-संशोधित ऐसी मोक्षरत्ना एवं कुसुमामोदा से सुशोभित प्रस्तुत प्रकरण को प्रगट करने में मेरे अनाभोग आदि की बदौलत कुछ असङ्गति जैसा लगे तो वहाँ प्रकरणकार के आशय के अनुकूल तात्पर्य का अवधारण करें। 'गच्छतः स्खलना क्वापि' न्याय से अन्त में यही प्रार्थना वाचकवर्ग से है कि इसमें जिनाज्ञाविरुद्ध कुछ लिखा गया हो तो उसका संशोधन स्वयं कर लिया जाय।
सिद्धान्तमहोदधि-वात्सल्यवारिधि-परमपूज्य-आचार्यदेवेश-श्रीमद् विजय प्रेमसूरीश्वरजी महाराजा के पट्टालङ्कार-न्यायविशारदवर्धमानतपोनिधि-गच्छाधिपति-श्रीमद्विजय भुवनभानुसूरीश्वरजी महाराजा, जिनकी दिव्य कृपा इस कार्य को साद्यन्त संपूर्ण करने में निरन्तर प्रवाहित रही है, अन्यथा मेरे जैसा अल्पज्ञ क्या कर सकता?
सकलगीतार्थचूडामणि, सिद्धान्तदिवाकर परमपूज्य आचार्यदेव श्रीमद्विजय जयघोषसूरीश्वरजी महाराजा को कैसे बिसर सकता हूँ जिनकी सक्रिय प्रेरणा एवं प्रोत्साहन से पंडितजी श्रीहरिनारायणमिश्रजी के पास न्यायकुसुमाञ्जलि, खण्डनखण्डखाद्य, मीमांसाश्लोकवार्तिक, प्रमाणवार्तिक, अद्वैतसिद्धि, चित्सुखी, वाक्यपदीय आदि दुरुह एवं जटिल प्राचीन दार्शनिक ग्रन्थों के अभ्यास का अद्वितीय सौभाग्य प्राप्त हुआ। ___ शासनहितचिन्तक, कर्मसाहित्यपारदृश्वा परमपूज्य हेमचन्द्रसूरिजी महाराजा, जिन्होंने संसार अटवी में भटकती हुई हमारी आत्मा को दुर्लभ संयमरत्न का अपनी जान की बाजी लगा कर दान किया, को भी मैं कभी नहीं भूल सकूँगा।
नैयायिकशिरोमणि, तर्करत्न परमपूज्य विद्यागुरुदेवश्री (वर्तमान में आचार्य) जयसुन्दरविजयजी महाराजा, जिन्होंने सामान्यनिरुक्त (गादाधरी), व्युत्पत्तिवाद, व्यधिकरण (जागदीशी), तत्त्वचिन्तामणि आदि कठिनतम ग्रन्थों का निःस्पृहभाव एवं उदारता से न केवल अध्ययन कराया मगर मेरे रत्नत्रय के उद्यान को अंकुरित-नवपल्लवित-पुष्पित एवं फलित करने में भी काफी बड़ा सहयोग दिया, तो सदा मेरे मनमंदिर में प्रतिष्ठित रहेंगे। इस कार्य में अनेक विषम स्थलों में उनका अनमोल मार्गदर्शन न मिला होता, तो यह प्रकाशन शायद नामुमकिन बन जाता।
भवोदधितारक, उदारचित्त परमपूज्य गुरुदेवश्री (वर्तमान में पंन्यास) विश्वकल्याणविजयजी महाराजा, जिनकी अनहद कृपा हमें संयम एवं सम्यग्ज्ञान आदि सद्योगों की आराधना के रहस्य को पाने में एवं अन्तर्मुख जीवन जीने में सतत उत्साहित कर रही है, को भी इस मंगल कार्य में बिसर जाना अपनी कृतज्ञता को खो देने जैसा है।
अपनी नादुरस्त तबियत होने पर भी संशोधकीय वक्तव्य भेज कर मुनिराज (वर्तमान में पंन्यास) श्रीयशोरत्नविजयजी महाराजा ने, जो इस ग्रन्थ के संशोधकों में से एक है, भी मुझ पर अपार उपकार किया है। एतदर्थ मैं उनका भी आभारी हूँ।
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