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बात यह है कि प्रस्तुत स्वोपज्ञविवरण भिन्न भिन्न अतिसंक्षिप्त शब्दशैली से अनेकविध विषयों के प्रतिपादन के आरोह-अवरोह से व्याप्त है। देखिये, स्वोपज्ञविवरण भाषानिक्षेप प्रतिपादन की शैली से निक्षेपप्रधान है, चित्ररूपवाद-द्रव्यानुयोगउपमान आदि के निरूपण की दृष्टि से वादप्रधान है, रूपक-उपमा-व्यतिरेकालंकार आदि के प्ररूपण की अपेक्षा अलङ्कारप्रधान है, प्रत्येक भाषा लक्षण वक्तव्य के दृष्टिकोण से न्यायप्रधान है, चतुर्विध भाषा का द्विविध भाषा में समावेश आदि की अपेक्षा नयप्रधान है, भाषावर्गणास्पर्श-पंचविधभेद-मिश्रभाषाविभागसमर्थन श्रुतभावभाषातृतीयभेदकथन आदि को लक्ष्य में रखने पर सम्प्रदायप्रधान भी है, उपमासत्यनिरूपण को लक्ष्य में लेने पर कथामय है, भाषा में मिश्रत्व के स्थापक वक्तव्य पर निगाह डालने पर नव्यन्यायपरिभाषाप्रधान है, विनयशिक्षाधिकार को देखने पर आगमप्रधान है, अन्तिम वक्तव्य की अपेक्षा अध्यात्ममय है। एवं सङ्गतिमय, युक्तिमय, परदर्शनखण्डनमय और स्वदर्शनमण्डनमय भी निःसङ्कोच कहा जा सकता है। अतएव इस पर एक विशद नवीन टीका की आवश्यकता मुझे महसूस हुई।
मोक्षरत्ना उद्भवस्थान प्रायः ६-५-८७ की वह चाँदनी रात थी जब कोल्हापुर के पास शिरोली नामक छोटे गाँव के एक सज्जन के गृह में पू. तपोरत्नविजयजी म. सा., पू. मुक्तिवल्लभविजयजी म. सा. और मैं शोकसंतप्त एवं द्रवित हृदय से एक साथ बैठकर दिवंगत मुनिराजश्री मोक्षरत्नविजयजी म. सा. के बालरवि की भाँति उष्मादायी, प्रकाशक एवं प्रेरक जीवन और आघातजनक निधन के बारे में बात-चीत कर रहे थे। एक दुर्घटना के सबब केवल २९ साल में इस नश्वर संसार को अलविदा कर के स्वर्गलोक को अलङ्कृत करनेवाले मुनिराजश्री ने अपनी सर्वतोमुखी प्रतिभा एवं गुरुकृपा के बल से चतुःशताधिक शास्त्रों के रहस्यार्थ को समझ कर अपने जीवन में सम्यक् परिणत किया था, जो उनके जघन्यतःनित्य एकाशन तप, उत्कृष्ट त्याग, निर्दोष संयमचर्या, बिनशरती सदा गुरुसमर्पणभाव, वडील आमान्या, निरहंकार एवं निस्पृह मनोवृत्ति, अन्तर्मुखता, साहजिक मैत्रीभाव, वात्सल्यपूर्ण वाणी और सदा प्रसन्न मुखमुद्रा आदि से भली-भाँति जान पडता है। दिवंगत मुनिराजश्री तो अपने अनुपम गुणों की गरिमा एवं निर्दोष संयमजीवन की महिमा से सदा अमर ही रहेंगे मगर उनके नाम को चिरस्थायी बनाने में सक्रिय प्रयत्न करने का परम सौभाग्य हमें भी अवश्य मिलना चाहिए - इत्यादि विचारविमर्श के अन्त में स्वर्गस्थ मुनिपुङ्गवश्री के नाम से सम्बद्ध एक-एक ग्रन्थ या टीका या काव्य आदि कृति का सर्जन करने का हम तीनों ने शपथ लिया। यहाँ, मेरे शपथ की समाप्ति एवं प्रकृत प्रकरण के स्वोपज्ञविवरण की टीका की आवश्यकता की परिपूर्ति का यह एक नम्र प्रयास है।
जिन्हें उपाध्यायजी, महोपाध्यायजी आदि उपनाम से प्रायः सब जैन मनीषी अच्छी तरह पहचानते हैं ऐसे न्यायविशारद, न्यायाचार्य श्रीमद्जी की नव्य न्याय की संस्कृत एवं परिस्कृत परिभाषा से परिपुष्ट और सर्वविषयगामी कृति पर अपनी लेखनी को चलाना मेरे बस की बात नहीं थी। फिर भी गुरुजनों की प्रेमपूर्ण प्रेरणा एवं अंतःकरण के अनगिनत आशिष, महोपाध्यायजी के प्रति अपनी अनन्य आस्था तथा दिवंगत मुनिराजश्री के मूक प्रोत्साहन के बल पर भरोसा रख कर मैंने मद्रास आराधनाभवन में मोक्षरत्ना का श्रीगणेश किया। न्यायाचार्य महोपाध्यायजी को रोज वंदना कर के उन्हीं के चरणकमल में बैठ कर मैं वही लिखता था जो मुझे वे लिखाते थे - ऐसा प्रारम्भ से परिसमाप्तिपर्यन्त मेरा अनुभव रहा है। इसी सबब अपने जीवन में कभी न सोचा हुआ कल्पनातीत दिव्यतत्त्वज्ञान का प्रवाह मोक्षरत्नासर्जन काल के दौरान मैंने महोपाध्यायजी की असीम कृपादृष्टि से प्राप्त किया है। वस्तुस्थिति तो यह है कि मैं मोक्षरत्ना का सर्जन नहीं कर रहा था मगर मोक्षरत्ना ही मेरा सृजन कर रही थी, रत्नत्रयी के पावन परिणाम की गुलाबी लहर जगा रही थी। अतः 'While I was writing Moxratna; Moxratna was writing me' ऐसा मैं निःसंदिग्ध कह सकता हूँ।
न कुछ हम हँस के सीखे हैं, न हम कुछ रो के सीखे हैं। जो कुछ थोडा सा सीखे हैं, किसी के हो के सीखे हैं ।। अस्तु !
यद्यपि जो मनीषी क्षयोपशम आदि में मुझसे आगे बढ़ चूके हैं उनके लिए मोक्षरत्ना तनिक भी उपयोगी नहीं है तथापि उन विद्वान् बहुश्रुत मनीषियों से मेरी यह सविनय विज्ञप्ति है कि - एक बार मोक्षरत्ना को साद्यन्त पढकर या परिशिष्ट ३ एवं ४ तथा मोक्षरत्ना के विशिष्ट विषयानुक्रम को लक्ष्य में रखते हुए तत् तत् स्थलों को शांति से देख कर 'मैं इस प्रथम नम्र प्रयास में कहाँ तक सफल रहा हूँ?' इसका निर्णय करे एवं त्रुटियों का संमार्जन और निवेदन करे।
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