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मुनि यशोरत्नविजय
श्रीशद्धेश्वरपार्श्वनाथाय नमः
प्रस्तावना
युनाइटेड स्टेट्स ऑफ अमरिका की सरकार ने कुछ साल पहले फल के पौधे को, जिनकी आयात हो रही थी, करमुक्त करने का तय किया था, जिसका 'all foreign fruit-plants' ऐसा लिखित उल्लेख न हो कर all foreign fruit, plants' ऐसा लेखित उल्लेख प्रकट हुआ था। भाषा की अशुद्धि की बदौलत आम केले आदि फलों की आयात करमुक्त बनने से २०,००,००० डोलर का सरकार को नुकशान हुआ। भाषा की अविशुद्धि से अर्थ का अनर्थ हो जाता है - इस सत्य की समर्थक एक दूसरी घटना इस तरह घटी थी। किसी एक संसद्गसभ्य ने दूसरे संसदसभ्य पर झूठ बोलने का इल्झाम लगाया जिसकी वजह उसे लिखित क्षमापात्र देने को मजबूर होना पड़ा कि "| said he was a liar, it is true; and I am sorry for it" मगर वर्तमानपत्र में इसका निर्देश
"Isaid he was a liar; it is true and I am sorry for it" इस ढंग से होने के सबब भारी गैरसमझ हो गई ! 'विषं दद्यात्' का 'विषां दद्यात्' ऐसा परिवर्तन होने से मौत के स्थान में राजकन्या, सार्वभौम साम्राज्य आदि पाने का दृष्टान्त भी सुप्रसिद्ध है। ऐसे तो अनेक प्रसंग हैं जो भाषाविशुद्धि की उपादेयता एवं भाषाअविशुद्धि की हेयता को घोषित कर रहे हैं। वचनयोग में एक ऐसा सामर्थ्य निहित है, जो कोबाल्ट बोम्ब की भाँति महाविनिपात का सृजन करने में सक्षम होता है तो कभी पुष्करावर्त मेघ की तरह दूसरों के जीवन में नयी चेतना, अनूठा आनंद, अनुपम स्वस्थता आदि को फैलाने में भी। जीवनव्यवहार में आग की भाँति वाणी अतिआवश्यक भी है एवं विस्फोटक भी। अतएव न तो उसका सर्वथा त्याग किया जा सकता है और न तो निर्मर्याद एवं बेखौफ उपयोग भी। एतदर्थ जीव में से शिव बनने के लिए सदा उद्योगी साधकों के लिए भाषा से भली-भाँति सुपरिचित होना अतिआवश्यक है - यह बताने की जरूरत नहीं है। भारती के माध्यम से किस पहलू से अपने इष्ट फल की सिद्धि हो, जिससे जिनाज्ञा का भङ्ग न हो - यह ज्ञान होना प्रत्येक साधक के लिए प्राणवायु की भाँति आवश्यक है। इस वस्तुस्थिति को लक्ष्य में रख कर, भाषासम्बन्धी वक्तव्य के रहस्यार्थ को परोपकारार्थ प्रकट करने के लिए महामहोपाध्याय श्रीमद् यशोविजयजी महाराजा ने 'भाषारहस्य' नामक प्रकरणरत्न की रचना की और स्वोपज्ञविवरण से उसे अलङ्कृत भी किया।
ग्रन्थ एवं स्वोपज्ञविवरण भाषाविषयक रहस्यार्थ का आविष्कार करनेवाली प्रस्तुत प्रकरणमञ्जूषा १०१ गाथास्वरूप रत्नों से भरी हुई है। विषय की गहनता एवं दुर्बोधता को लक्ष्य में रख कर महोपाध्यायजीने १०५५ श्लोकप्रमाण स्वोपज्ञविवरण भी बनाया है, जो मूल ग्रन्थ के तात्पर्य को खोलने की एक कुंजी है। इस प्रकरण के आधारभूत शास्त्र ग्रन्थ हैं दशवैकालिक सूत्र, प्रज्ञापना सूत्र, विशेषावश्यकभाष्य, पञ्चसङ्ग्रह इत्यादि। मूलप्रकरण के विषयों को ध्यान में रखकर इस ग्रन्थ को मैं ने ५ स्तबकों में विभक्त किया है। प्रथम स्तबक में भाषाविशुद्धि की आवश्यकता, भाषा के निक्षेप एवं गृह्यमाण भाषाद्रव्यों की द्रव्यादिचतुष्क से प्ररूपणा करने के बाद भाषाद्रव्यों में स्पृष्टाऽस्पृष्टादि का निरूपण प्रज्ञापना के भाषापद के अनुसार किया गया है। भाषा द्रव्य का ग्रहण, निसरण एवं पराघात किस तरह होता है? इस विषय के प्ररूपण के प्रसंग से पञ्चविध भेद का निरूपण करते करते नैयायिकमत का खण्डन कर के भिद्यमान भाषाद्रव्यों के नाशप्रसङ्ग का अच्छी तरह निराकरण किया है। आगे चल कर आगमिक तीन सिद्धान्तों के बल पर ग्रहणादि तीन में द्रव्यभाषात्व की सिद्धि की है - वहाँ उपाध्यायजी महाराजा की अनूठी प्रतिभा का दर्शन होता है। भावभाषा के निरूपण में बौद्धवैशेषिक एवं नास्तिक को अपनी बुद्धि से परास्त करने की शैली भी अजायब है। बाद में भावनिक्षेप से त्रिविध भाषा में से प्रथम द्रव्यभावभाषा के सत्य, असत्य, मिश्र एवं अनुभय - ये चार भेद बताये हैं। प्रथम स्तबक में आगे सत्य द्रव्यविषयक भावभाषा का ही केवल निरूपण प्राप्य है। व्यवहारनय से भाषा के चार भेद होते हैं एवं निश्चयनय से केवल दो, फिर भी विरोध को अवकाश नहीं है - ऐसा सिद्ध करने के लिए पन्नवणा के जातिसूत्र एवं केवलसूत्र का अवलम्बन कर के जो युक्तियाँ प्रदर्शित की गई हैं, वे प्रकरणकार की सूक्ष्म आगमपरिशीलनता का हमें परिचय करा रही हैं। बाद में सत्यभाषा का लक्षण बता कर २२ से ३६ गाथापर्यन्त जनपदसत्य भावभाषा आदि दशविध भाषा का, जो द्रव्यविषयक सत्य भावभाषा के भेदविधया अभिमत है, लक्षण, दृष्टान्त आदि
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