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सम्पादनपद्धति
प्रस्तुत ग्रन्थ के सम्पादन में मेरे सामने दो प्रतियाँ थी। एक उपाध्यायजी महाराज के स्वहस्ताक्षरवाला आदर्श, जिसकी कप्रति संज्ञा है। दूसरी प्रति वह थी जो पूर्व में मुद्रित हो चुकी थी । जहाँ जहाँ उपर्युक्त दो प्रतिओं में शुद्ध पाठान्तर दृष्टिगोचर हुआ, हो सके तब तक कप्रति के पाठ का ही ग्रहण किया गया है, देखिये पृ. ३१, ३३, ३८, ४४, ४७, ७१, १०२, १२३, १७६, १८५, २०७ २१७, २२१, २३७, २३८, २४०, २६९, २७१, २७४, २८५, ३०७, ३२७, ३३७... इत्यादि । कुछ स्थल में दोनों प्रतिओं में त्रुटक पाठ उपलब्ध होता है वहाँ हमने हमारी मति के अनुसार विषय को समझकर () ऐसे कोष्ठकान्तर्गत अपेक्षित पाठ का प्रयोग किया है, जैसे पृ. २८८ आदि स्थलविशेष में दोनों प्रतिओं में अधिक पाठ भी प्राप्त होता है, जिसे ज्यों का त्यों रख कर टिप्पण में उसका निर्देश किया गया है जैसे पृ. १७८ आदि। कुछ स्थल में मुद्रित प्रति में भी अधिक पाठ उपलब्ध होता है, जैसे पृ. २४, २२१, २९५ आदि कुछ स्थल में कप्रति में भी अधिक पाठ उपलब्ध हुआ जैसे पृ. ३९ आदि मुद्रित प्रति में अनेक जगह अशुद्ध पाठ भी हैं जैसे २४०, २४८, २७४, ३१२, ३१५, ३२१, ३२८ आदि । २९५ इत्यादि । उन स्थलों में कप्रति का आधार ले वहाँ कप्रति के अनुसार त्रुटक पाठ लिया गया है,
पृ. ४६, ८८, ११८, १५९, १८७, १९०, १९३, १९५, २०५, २१६, २२७, २३३, २३६, कुछ स्थल में तो मुद्रित प्रति अत्यन्त अशुद्ध भी है, जैसे पृ. २०७, २२१, २५० कर शुद्ध पाठों का ग्रहण किया गया है। जिस स्थल में मुद्रित प्रति त्रुटक है देखिये पृ. १८४, १८८, २३७, २४५, २७४ आदि । जिस स्थल में कप्रति त्रुटक है वहाँ मुद्रित प्रति को सहायता से पूर्ण पाठ लिया गया है जैसे पृ. १९३ आदि । मुद्रित प्रति में कुछ स्थल में शुद्ध पाठान्तर की भी उल्लेख है, देखिये, पृ. ३३७... आदि । मुद्रित प्रति में शुद्ध और अशुद्ध पाठान्तर का भी निर्देश मिलता है, जैसे पृ. १८६ इत्यादि इसी तरह कुछ स्थल में कप्रति त्रुटक है वहाँ मुद्रितप्रत आदि का सहारा लेकर यथोचित पाठ का निवेश किया गया है, जैसे पृ. ६, ३५, ३८, ४७, ५६, ९२, १७३, १८५, १९३ इत्यादि । कुछ स्थल में कप्रति भी अशुद्ध है जैसे पृ. ७३, १६१, २१३ आदि । मगर पृ. ९०, १६३, १६४, २५१ इत्यादि स्थान में तो मुद्रितप्रति और कप्रति दोनों ही अशुद्ध है वहाँ अन्य ग्रन्थों के सन्दर्भों को देखकर एवं गुरुजनों से विचार-विमर्श कर के अपेक्षित शुद्ध पाठ का ( ) इस चिह्न में उल्लेख किया है। ये सब उल्लेख मैं ने तत् तत् पत्रक्रमांक की टिप्पणी में एवं कुछ स्थल में मोक्षरत्ना में भी किये है देखिये पृ. १०८, १५९, २०८, २२१, २३३ । शेष संपूर्ण ग्रन्थ जैसा का तैसा पदच्छेद आदि ठीक कर के छपाया गया है। मूलग्रन्थ एवं उपाध्यायजी महाराज के स्वोपज्ञविवरण के संपादन एवं संशोधन में क्षयोपशमानुसार यतनापूर्वक मैंने प्रयत्न किया है फिर भी कहीं त्रुटि दीख पड़े तो उसके परिमार्जन के लिए प्रिय विज्ञ वाचकवर्ग प्रयास करे एवं मुझे ज्ञापित करेयह विज्ञप्ति ।
हिन्दीटीका कुसुमामोदा
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यद्यपि मेरी मातृभाषा गुजराती है एवं हमारे श्रीमूर्तिपूजक जैन संघ में अधिकांश जनसमुदाय गुजराती भाषा जानता है तथापि इस ग्रन्थ का विवेचन हिन्दी भाषा में बनाने के अनेक कारण हैं। एक तो यह ग्रन्थ दशवैकालिक, प्रज्ञापना आदि मूल आगमों पर मुख्यतया अवलंबित होने से उन स्थानकवासी तेरापंथी आदि विद्वानों के लिए भी अतीव उपयोगी एवं सन्मान्य है जो अधिकांश में गुर्जर भाषा से अनभिज्ञ है। दूसरा, मेरा यह अभिप्राय है कि जो वाचकसमुदाय उपाध्यायजी महाराज के साहित्य को समझने की कक्षा में है उन्हें राष्ट्रीय भाषा समझने में कठिनाई नहीं होनी चाहिए। तीसरा, न्याय के अभ्यासी साधु-साध्वी प्रायः हिन्दी भाषा के माध्यम से पंडितजी आदि से न्यायदर्शन का ज्ञान प्राप्त करते हैं, जिसकी वजह राष्ट्रभाषाग्रथित विवेचन के द्वारा ग्रन्थ को समझने में उन्हें सौकर्य भी रहेगा। चौथा, इस ग्रन्थ में अनेक दार्शनिक चर्चा समाविष्ट होने से विशाल दार्शनिक अभ्यासी वर्ग भी इससे लाभान्वित हो सके। निष्कर्ष: हिन्दी भाषानिबद्ध विवेचन के सबब विशाल पाठकवर्ग इस ग्रन्थरत्न का लाभ ले पाएगायह लक्ष्य में रख कर विवेचन का माध्यम राष्ट्रभाषा बनी है। धार्मिक संस्कारों का मुझ में वपन - जतन - पालन - रक्षण-संवर्धन करने किन्तु धर्मदेह की भी ऐसी उपकारी संसारी धर्ममाता कुसुमबेन के नाम से गर्भित पसंद किया है।
की वजह जो न केवल मेरे पार्थिवदेह की माता है 'कुसुमामोदा' ऐसा नामकरण हिन्दीटीका का मैंने
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संशोधन एवं उपकारस्मरण
सात मास की अवधि में निष्पन्न मोक्षरत्ना एवं कुसुमामोदा टीका द्वय में त्रुटियाँ होने का इन्कार कैसे किया जा सकता? क्योंकि मेरा ज्ञान क्षायोपशमिक है। अतएव नव्य एवं प्राचीन न्याय के दिग्गज विद्वान्, कर्मसाहित्यनिपुणमति, षड्दर्शनपरिकर्मितप्रज्ञावाले
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