________________
५ (टीका का नाम) टीकाकार ने टीका का नाम 'मोक्षरत्ना' रखा है। ये 'मोक्षरत्न' कौन थे? 'प. पू. युवाजागृतिप्रेरक दीक्षादानेश्वरी शासनप्रभावक आचार्यदेव श्रीमद् विजय गुणरत्नसूरीश्वरजी महाराज के शिष्यरत्न एवं वर्तमान सदी के महनीय विद्वान् | अद्वितीय त्यागी। मैं उनके क्या गुणगान करूँ? बापजी म. के समुदाय के प. पू. आराधनादत्तैकचित्त भद्रंकरसूरीश्वरजी म. ने उन्हें ज्ञान आराधना में उपाध्यायजी एवं त्याग में धन्ना काकंदी के स्मृतिदायक कह कर पुकारा है। ___ चतुःशताधिक ग्रन्थों के अध्येता एवं रसप्रद सभी वस्तुओं के त्यागी होते हुए भी जिन्हों ने अहंकार को चूर कर गुरुसमर्पण भाव को आत्मसात् कर लिया था। ये मुनिराज हमारे बीच करीब १० वर्ष (मेरे दीक्षा पर्याय में) रहे थे। इसलिए उनसे मेरा निकट संबन्ध था। उनकी गुणगरिमा मुझे नतमस्तक कर देती है। गुरु-शिष्य में जो माता-पुत्र का संबंध होना चाहिए उसको उन्होंने साक्षात्कार कर के एवं आत्मसात् कर के बतलाया था।
इतने उच्चकोटि के विद्वान् होते हुए भी व्याख्यान आदि से विमुख थे, क्योंकि मान सन्मान प्रशंसा आदि उन्हें अप्रिय लगती थी।
बाह्यभाव के उद्बोधक एवं उदीरक प्रपञ्चों से उन्मुक्त होकर आत्मभाव में ओतप्रोत होने के कारण वे सहवर्तिओं के लिए एक आदर्शस्वरूप थे। परन्तु इस खिलती कली को आक्रमक काल ने मध्य में ही कवलित कर दी... इस दुर्घटना एवं स्वर्गस्थ मुनिराज श्रीमोक्षरत्नविजयजी म. के जीवन की कहानी को विद्वान् मुनिराज श्रीरश्मिरत्नविजयजी ने आधुनिक शैली में 'बरस रही अँखियाँ' नामक पुस्तक में आलेखित की है। अतः जिज्ञासु वाचकगण वहीं से जिनशासन नभस्तल में हुए ज्ञानसूर्य एवं त्यागचन्द्रमा के उदय अस्त का युगपत् अवलोकन कर सकते हैं।
(६. संशोधन) इस विद्वत्तापूर्ण टीका के संशोधनहेतु टीकाकार ने अनूठा ढंग अपनाया था। इसी टीका के अन्तर्गत विशिष्ट शैली से किया गया 'समाप्ति का लक्षण' अनेक विद्वानों को भेज कर अभिप्राय मँगाए थे। मेरे गुरुदेव निस्पृहशिरोमणि प. पू. मुनिराज श्रीपुण्यरत्नविजयजी म. सा. ने समाप्तिलक्षण का संशोधन एवं अभिप्राय भेजा था। उससे प्रभावित हो कर टीकाकार ने मेरे गुरुदेव को संशोधन हेतु अभ्यर्थना की। मेरे गुरुदेवश्री ने अत्यन्त उत्साह एवं आनन्द पूर्वक उस अभ्यर्थना का स्वीकार किया और संशोधन भी अतिसूक्ष्मतापूर्वक करने का सफल प्रयास किया। लगभग संपूर्ण संशोधन उन्होंने ही किया है। 'प्रस्तुत ग्रंथ' एवं 'संशोधकीय वक्तव्य' के संशोधन में मेवाड़देशोद्धारक आचार्यदेवेश श्रीजितेन्द्रसूरीश्वरजी म. सा. ने सहायता प्रदान की है अतः मैं उनका ऋणी हूँ। मैंने तो अत्यल्प मात्रा में सामान्य संशोधन किया है।
यथामति यथाशक्ति किए गए इस संशोधन में जो त्रुटियाँ रह गई हो उन्हें विद्वद्जन परिमार्जित करेंगे- इसी विश्वास से अब मैं मेरी लेखनी को विराम देता हूँ।
आचार्यदेव प्रेमसूरीश्वरजी गुरुमंदिर पिण्डवाड़ा श्रावणवद २, २०४७