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(४) इस टीका की विशेषता यह है कि जैसे यह टीका विद्वद्भोग्या है वैसे बालभोग्या भी है, क्योंकि प्रस्तुत टीका में स्वोपज्ञविवरण को संपूर्ण रीति से समझाने की कोशिश की है। अरे ! कहीं-कहीं तो पदों को इतनी विशदरीति से समझाया है कि साधारणव्यक्ति भी उसे आसानी से समझ पाये। जैसे ग्रन्थ की अवतरणिका में उपाध्यायजी के दशवैकालिक सूत्र की चूर्णि के 'अणुवायेण' शब्द की टीका करते हुए एवं सुगमता से समझाने हेतु चूर्णिकार का तात्पार्य बताते हुए टीकाकार लिखते हैं "अणुवायेण" इति उपायविपर्ययेण उपायश्चावसरोचितसम्यग्वचनप्रयोगादिरूपः तदुक्तं धर्मबिन्दौ 'अनुपायात्तु साध्यस्य सिद्धिं नेच्छन्ति पण्डिताः । (ध. बि. ४/२३) तथा च रत्नत्रयोपष्टम्भकसम्यग्वचनप्रयोगाद्यर्थं सम्यग्वचनविभागज्ञानमावश्यकमेवेति आचार्यस्योत्तरदाने तात्पर्यमिति भावः ।'
(५) स्वोपज्ञटीका के भाव को स्पष्ट समझाने हेतु सुन्दर प्रयत्न किया गया है। जैसे :- गाथा नं. ४० की स्वोपज्ञटीका में केवल इतना ही कहा है कि क्रोध से आकुल होकर जो पुरुष गाय को गाय कहता है वह वचन भी असत्य (अप्रमाण) ही है, ऐसा पूर्वमहर्षिओं का अभिप्राय है। टीकाकार ने स्पष्टीकरण किया कि कौन से महर्षि का ऐसा अभिप्राय है एवं किस ग्रन्थ में इसका उल्लेख है। देखिए -
सम्प्रदाय इति। तदुक्तं वृद्धविवरणे श्रीजिनदासमहत्तरगणिना - 'तस्स कोहाउलाचित्तत्तणेणं घुणक्खरमिव तं अप्पमाणमेव भवति । जहा घुणक्खरे सच्चमपि पंडियाणं चित्तगाहगं न भवति, कोवाकुलचितो जं संतमवि भासति तं मोसमेव भवति' (दश. अ. ७६/नि. गा. २७६ चू. पृ. २३७)
(६) जैसे माला के बीच में मेरु सुशोभित होता है, सोने की चेन के बीच में रत्न शोभास्पद होता है वैसे ही इस प्रौढ टीका में बीच-बीच में मनोविनोद हेतु प्रासङ्गिक मीमांसा भी अद्भूत कोटी की है। जैसे -
गाथा नं. ७४ की स्वोपज्ञटीका के 'याचनप्रवणम्' का अर्थ 'स्वोद्देशकदानेच्छापरक वचन' किया है। बाद में इसके घटकीभूत 'दान पद' की सुंदर मीमांसा कर के अन्त में अपनी विशिष्टशैली से दान का निर्वचन किया है। ___ इस प्रकार यह टीका अनेक विशेषताओं से विशिष्ट है। वाचकवर्ग इसे पढ़ कर आनंद की अनुभूति करेंगे - ऐसा मुझे विश्वास
वर्तमान में शैक्षकों (नूतनदीक्षितों) के साथ-साथ कुछ अन्य श्रमणों में भी श्रमणयोग्य भाषा के उच्चार में शैथिल्य ज्ञात हो रहा है। इसका मुख्य कारण यह है कि वे श्रमणयोग्य भाषा से अनभिज्ञ हैं।
१४इस ग्रन्थ में तो यहाँ तक बताया गया है कि जो वचनविभाग को नहीं जानता हुआ मौन भी रखे तो भी वह वचनगुप्ति का आराधक नहीं है। संयम यानी अष्टप्रवचनमाता का पालन । वचनगुप्ति अष्टप्रवचनमाता में से एक है। जब वचन गुप्ति का ही पालन नहीं होगा तो अष्टप्रवचनमाता की आराधना कैसे हो पाएगी?
पौदगलिक प्रशंसा के वचन - 'यह उपाश्रय बहुत सुंदर है', आज अच्छी हवा आ रही है, 'आपका शरीर बहुत अच्छा है', 'यह बेन्ड बहुत अच्छा है,' इत्यादि एवं श्रमणायोग्यभाषा - जैसे गृहस्थ को 'आओ' 'बैठो' 'तुम्हारा शरीर ठीक है?' इत्यादि श्रमण नहीं बोल सकते हैं। इस प्रकार बोलने से भाषा समिति का भंग होता है।
शास्त्र में तो कहा है कि जो सावद्य एवं अनवद्य भाषा के भेद को नहीं जानता हो उसे बोलना भी कल्याणकारी नहीं है, व्याख्यान देना तो दूर रहा। देखिए -
सावज्जणवज्जाण वयणाणं जो न याणइ विसेसं । वोत्तुंपि तस्स ण खमं किमंग पुण देसणं काउं? || विद्वान तो इस ग्रन्थ को साद्यन्त पढ़ कर वचनविभाग में कुशल बन सकते हैं परन्तु टीकाकार ने तो इस ग्रन्थ का हिन्दी अनुवाद करके संस्कृत प्राकृत के अनभिज्ञ श्रमणों के ऊपर भी अनन्य उपकार किया है। अतः मेरा सभी से अनुरोध है कि यह ग्रन्थ साद्यन्त पढ़ कर वचनविभाग के ज्ञाता बनें। उसमें भी विशेष कर के पाँचवे स्तबक का गाथा नं. ८५ से लगाकर गाथा नं. ९७ तक का ग्रन्थ अत्यन्त उपयोगी है, क्योंकि उसमें ग्रन्थकार एवं टीकाकार ने दशवैकालिक के सप्तम अध्ययन के अनुसार श्रमणजीवन में बहुत ही उपयोगी सामग्री का परिपेषण किया है।
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