Book Title: Bharatiya Chintan ki Parampara me Navin Sambhavanae Part 2
Author(s): Radheshyamdhar Dvivedi
Publisher: Sampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
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गांधीचिन्तन की सार्थकता और समदृष्टि द्वारा ईश्वर की आराधना मनुष्य का कर्तव्य है। सब प्राणियों के प्रति सद्भावना, मानव व्यक्तित्व का आदर, सबकी निष्काम सेवा, सबके साथ समता का व्यवहार वह प्रत्येक मनुष्य का धार्मिक कर्तव्य समझते थे। वह प्रहलाद के इस विचार से पूर्णतया सहमत थे कि समता ईश्वर की आराधना है ( समत्वमाराधनमच्युतस्य ) और वरिष्ठता के अहंकार को वह ईश्वर और मानव के प्रति अपराध समझते थे।
गांधीजी कहते थे कि सत्य ईश्वर है, ईश्वर सत्य है। इस तरह वह सत्य को संसार की पारमार्थिक सत्ता, धर्म का शाश्वत सिद्धान्त, जगत् के नैतिक विधान का मूल तत्त्व स्वीकार करते थे। उनके विचार में सत्य ही सर्वोत्तम ज्ञान है, सत्य का अनुसारण ही सर्वोत्तम शील है तथा सत्य का अनुष्ठान ही पवित्र व्रत है। वह चाहते थे कि सत्य ही हमारे जीवन का आधार हो, सत्य में ही हमारे सब क्रियाकलाप केन्द्रित हों, हर परिस्थिति में हम सत्य का दृढ़ता से पालन करें। संसार में सत्य को प्रतिष्ठा ही हमारे जीवन का लक्ष्य हो। सत्य की बलवती शक्ति पर उनका दृढ़ विश्वास था। उनकी धारणा थी कि अन्ततोगत्वा सत्य की विजय निश्चित है, सत्य के आधार पर ही मानव का नैतिक और आध्यात्मिक विकास, समाज का उत्कर्ष तथा संसार का स्थायी शान्ति तथा वास्तविक प्रगति सम्भव है। गांधी जी नारदमुनि के इस विचार को स्वीकार करते थे कि यद्भूतहितमत्यन्तं तत्सत्यं अर्थात् जिससे प्राणिमात्र का अधिक हित हो वही सत्य है। उनकी दृष्टि में विश्वहित सत्य का मूल मन्त्र है, जनकल्याण की क्षमता ही सत्य की परीक्षा है, जीवनमात्र के प्रति सद्भावना सत्यनिष्ठ का कर्तव्य है। गांधी जी के विचार में यदि जनकल्याण सत्य को परख है तो अन्तः करण ही उसकी सर्वश्रेष्ठ कसौटी है और अहिंसा ही सर्वोत्तम साधन है। वही कार्य और विचार सत्य है जो अन्तः करण को जनहितकारी प्रतीत हो। वह उस शब्द प्रमाण को स्वीकार करने को तैयार नहीं थे सर्वमान्य सिद्धान्तों अथवा जनकल्याण के प्रतिकूल हो। यद्यपि सत्य सनातन है, पर परिवर्तनशील संसार में उसकी नई नई अभिव्यक्ति होती रहती है। नई परिस्थितियों और अनुभवों की पृष्ठभूमि में सदविवेक और अन्तः करण द्वारा नये विचारों का सर्जन तथा पुराने सिद्धान्तों की नयी व्याख्या उन्नति के लिए अनिवार्य है। इस तरह सत्य विकासशील है। विकास में ही जीवनोत्कर्ष और कल्याण है।
अहिंसा द्वारा ही सत्य की प्रतिष्ठा सम्भव है। हिंसा तो सत्य के बजाय दम्भ, द्वेष, बैर आदि असद् वृत्तियों की ही वृद्धि करता है। साधन और साध्य का गहरा सम्बन्ध है । सत् साधनों द्वारा ही शुभ साध्य की सिद्धि सम्भव है। अपवित्र साधनों
परिसंवाद-३
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