Book Title: Bharatiya Chintan ki Parampara me Navin Sambhavanae Part 2
Author(s): Radheshyamdhar Dvivedi
Publisher: Sampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
View full book text
________________
भारतीय चिन्तन की परम्परा में नवीन सम्भावनाएं
ने बुनियादी शिक्षा को जैसे उचित माना है वैसे ही नवयुवकों के चारित्रिक पतन को रोकने में गांधी के सिद्धान्त काफी कामगर हो सकते हैं। विकेन्द्रीकरण के हिमायती गांधीजी की बातों पर वर्तमान सरकार का ध्यान न होने से वह केन्द्रीकरण की ओर बढ़ रही है। यह प्रवृत्ति खतरनाक दीखती है तथा लोकतन्त्र की घातक बन सकती है।
काशी विद्यापीठ के समाजशास्त्र विभाग के प्राध्यापक श्री रमेशचन्द्र तिवारी ने सामाजिक नैतिक दृष्टि से गांधी के सत्य और अहिंसा की अवधारणा का विवेचन करते हुए कहा-गांधीजी दर्शन प्रणाली के प्रवर्तक नहीं हैं। पर उन्होंने भारतीय संस्कृति का धार्मिक सांस्कृतिक विरासत के रूप में वैयक्तिक अनुभवों के आधार पर विश्लेषण किया तथा पश्चिम की उदारमानवतावादी परम्परा का उपयोग कर भारत में नये प्रकार का अहिंसक आन्दोलन प्रस्थापित करते हुए सत्य साध्य को प्राप्त किया। गांधीजी ने कहा-राजनीति को नैतिक आधार देना अत्यन्त आवश्यक है। नैतिकताविहीन राजनीति बहुत ही अनिष्टकारक है। क्योंकि समाज में धर्म एवं परम्परा के नैतिक मूल्यों का महत्त्व घटता जा रहा है। उनका मुख्य काम राजनीतिक संस्थाओं का आध्यात्मिकीकरण है। राजनीति को धर्म के साथ रहना चाहिए। मनुष्य के आन्तरिक आध्यात्मिक नैतिक तत्त्व ही धर्म है। अतः धर्म सम्प्रदाय से पृथक् है। नैतिकता का आधार सत्य है । सत्य का तात्पर्य अनेकान्तवादी दृष्टि सम्प्रयुक्त विचारों से है। अतएव सत्य यदि व्यक्तिगत एवं सामाजिक जीवन से जुड़ा है तो वह देशकाल को परिधियों से पृथक् लोकातीत एवं अनुभवातीत भी है। गांधीजी सत्य के पुजारी थे तथा अहिंसा को उसके लिए आवश्यक मानते थे। वे कहते हैं कि मैं मोक्ष का इच्छुक हूँ पर यदि मोक्ष का सत्य और अहिंसा से विरोध है तो मुझे मोक्ष नहीं चाहिए।
अहिंसा की व्याख्या करते हुए श्री रमेश चन्द्र तिवारी ने कहा--अहिंसा का शाब्दिक अर्थ है हिंसा की अनुपस्थिति या किसी को किसी प्रकार की हानि न पहुंचाना । पर भारतीय इतिहास में गांधीजी की अहिंसा श्रमण परम्परा के नजदीक है। श्रमणों में सभी पापों का मूल हिंसा मानी जाती है अतः अहिंसा के उन्मूलन का अर्थ है सभी पापों का उच्छेद । जब मनुष्य सभी को आत्मवत् समझ कर हिंसा का उन्मूलन करता है तभी वह अहिंसक बन सकता है। अहिंसा समाज के लिए आवश्यक है। गांधीजी ने इसका चार स्तर पर प्रयोग किया था सामुदायिक झगड़ों को दूर करने में, स्थापित व्यवस्था के विरोध में, विदेशी आक्रमण से बचाने
परिसंवाद-३
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org