Book Title: Bharatiya Chintan ki Parampara me Navin Sambhavanae Part 2
Author(s): Radheshyamdhar Dvivedi
Publisher: Sampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
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संस्कृति-दर्शन-सम्भावनायें और स्वरूप
--डा० शम्भुनाथ सिंह दर्शन का मूल अर्थ है देखना, साक्षात्कार करना। किन्तु जब हम दर्शनशास्त्र शब्द का प्रयोग करते हैं तो हमारा तात्पर्य उस शास्त्र से होता है जिसमें तार्किक पद्धति से किसी ऐसे सिद्धान्त का प्रतिपादन किया जाता है जो अपने विषय के चरम सत्य या मूलतत्त्व से सम्बन्धित होता है। इस तरह दर्शनशास्त्र सामान्यचाक्षुष साक्षात्कारजन्य अनुभव नहीं है। अन्नमय कोश से लेकर आनन्दमय कोश तक के सभी अनुभव चेतना के साक्षात्कार-जन्य' अनुभव है किन्तु उनके अनेक स्तर हैं जो क्रमशः ऊोर्ध्व रूप में स्थित होते हैं। दर्शन ऊर्वोच॑क्रम से चेतना के चतुर्थ स्तर के अनुभवों का शास्त्र है। उस स्तर से नीचे के स्तरों के अनुभवों के क्रमबद्ध और तर्क पूर्ण विवेचन-विश्लेषण को ज्ञान-विज्ञान तो कहा जा सकता है, पर उन्हें दर्शन की संज्ञा नहीं दी जा सकती।
___ किन्तु इसका यह तात्पर्य नहीं कि दर्शन जीवन से कटा हुआ किसी अतीन्द्रिय लोक के अनुभवों का शास्त्र है। मानव सभ्यता के विकास का इतिहास वस्तुतः ज्ञान-विज्ञान, विद्याओं और कलाओं के उत्तरोत्तर विकास का इतिहास है। इस विकास क्रम में दर्शन शास्त्र निरन्तर मानव जीवन से सम्बद्ध रहता आया है। विभिन्न दार्शनिक सिद्धान्तों में अन्तिम निष्कर्ष भले ही कल्पनाश्रित प्रतीत हो, किन्तु उनका प्रारम्भ जीवन की यथार्थ समस्याओं को लेकर ही हुआ था। दुःख, जरा, मरण, क्षणिकता, परिवर्तन आदि तथ्यों से अधिक यथार्थ समस्या और क्या हो सकती है ? सृष्टि की उत्पत्ति और विकास की समस्या क्या अययार्थ है ? भारतीय दर्शनों का प्रारम्भ इन्हीं प्रश्नों को लेकर हुआ। चेतना के निम्नस्तरों के अनुभव दर्शन के 'कच्चे माल' अर्थात् चिन्तन और प्रयोग की सामग्री मात्र हैं। चेतना के मुख्यतः पाँच स्तर हैं १. सहजातवृत्ति और सहजज्ञान का स्तर, २. वंशपरम्परागत ज्ञान का स्तर ३. शास्त्रीय ज्ञान का स्तर, ४. दार्शनिक ज्ञान का स्तर ५. प्रातिभज्ञान समाधि दशा के ज्ञान का स्तर ।
परिसंवाद-३
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