Book Title: Bharatiya Chintan ki Parampara me Navin Sambhavanae Part 2
Author(s): Radheshyamdhar Dvivedi
Publisher: Sampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi

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Page 307
________________ २८२ भारतीय चिन्तन की परम्परा में नवीन सम्भावनाएं जब हम भारतीय चिन्तन धारा में नये दर्शनों की सम्भावनाओं पर विचार करते हैं, तो उस समय हमें यह ध्यान में रखना होगा कि वह केवल बुद्धिविलास के लिये न होकर ऐहलौकिक दृष्टि से समस्त मानवता के कल्याण के लक्ष्य को अपने सामने रखे। एक अखण्ड विश्वसंस्कृति का विकास इसका प्रधान उद्देश्य होना चाहिए। आधुनिक विश्व स्वातन्त्र्य के संकोच के कारण दुःखी है। यह स्वत्व, धर्म, राष्ट्र, राज्य, भाषा, जाति, कुटुम्ब-कबीले आदि के नाना विभ्रमों में पड़कर बँटा हुआ है। अखण्डसंस्कृति के माध्यम से इन विभ्रमों को तो तोड़ पाने के उपरान्त ही अखण्ड स्वत्व का बोध हो सकता है। सहिष्णुता और समन्वय भारतीय इतिहास की विशेषता रही है। यह प्रक्रिया अब भी निरन्तर क्रियाशील है। त्याग और तपस्या के उच्च आदर्शों से अनुप्राणित साधु सन्तों की परम्परा परस्पर के स्थूल भेदों को मिटाने में निरन्तर सचेष्ट रही है। आधुनिक विश्व के वर्तमान धर्मों और विभिन्न वादों के विरोधी दृष्टिकोणों में सहिष्णुतापूर्वक समन्वय स्थापित कर अखण्ड संस्कृति के निर्माण का पथ प्रशस्त किया जा सकता है, जिससे कि विश्व समष्टि में इस अखण्ड संस्कृति के आविर्भाव से स्वत्व का संकोच दूर हो और 'वसुधैव कुटुम्बकम्' की उदात्त भावना का विकास हो। जहाँ प्रत्येक वस्तु के साथ प्रत्येक वस्तु के अभेद के प्रतिष्ठित होने पर भी अपने स्वरूप के नष्ट होने का कोई प्रसंग नहीं है, वहाँ विश्व के किसी वाद, धर्म अथवा संस्कृति के स्वत्व के लोप का भय क्यों उपस्थित होगा? इस तरह से ऐहलौकिक सामूहिक मुक्ति, अर्थात् समग्र मानवता के ऐहलौकिक कल्याण के लिये भारतीय दर्शन में नूतन दृष्टि का उन्मेष होने में हमें प्राचीन भारतीय विचारधाराओं के साथ भी किसी टकराव की आशंका नहीं मालूम पड़ती। ऐसा करके ही हम व्यक्तिगत उन्नति के साथ सामूहिक उन्नति की भावना की, पारलौकिक उपलब्धि के साथ ऐहलौकिक नैतिकता की, सीमित रूप में ही सही ह्रासवाद के स्थान पर विकासवाद और भाग्यवाद के स्थान पर पुरुषार्थवाद की भारतीय जनमानस में प्रतिष्ठा कर सकते हैं। ऐसा करते समय हमें ऐहलौकिक सामूहिक दृष्टि का विकास करने के लिये आधुनिक दृष्टि से सहायता लेने में परहेज नहीं करना चाहिये। वराहमिहिर की यह उक्ति इस प्रसंग में ध्यान देने योग्य है-वृद्धा हि यवनास्तेषु सम्यकशास्त्रमिदं स्थितम्'। दर्शन की नूतन धाराओं की सार्थकता इसी में है। तभी हम समस्त मानवीय विचारों में समन्वय स्थापित कर एक अखण्ड-विश्वसंस्कृति के निर्माण को साकार रूप देकर समग्र मानवता का कल्याण कर सकते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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