Book Title: Bharatiya Chintan ki Parampara me Navin Sambhavanae Part 2
Author(s): Radheshyamdhar Dvivedi
Publisher: Sampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi

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Page 352
________________ गोष्ठी का संक्षिप्त विवरण २२७ दे सकता है अतः हमको अपनी जिम्मेवारी लेकर समाजहित करने की बात करनी चाहिए। तिब्बतीसंस्थान के प्राचार्य प्रो. एस. रिम्पोछे ने कहा--सारे संसार में अपर्याप्तता की अनुभूति हो रही है और इस सम्बन्ध में भारतीयदर्शन से आशा भरी निगाहें लगायी गयी हैं, पर यहाँ के माहौल में मेरी समझ में यह बात नहीं आ रही है कि आपलोग किस नये दर्शन की खोज में लगे हुए हैं। आज के वैज्ञानिक भारतीय योग, ध्यान तथा साधन ओं का वैज्ञानिक परीक्षण कर रहे हैं और इसकी सफल उपलब्धियों से पूर्ण रूप में संतुष्ट हैं। इसी प्रकार तन्त्र द्वारा वर्णित फिजिकल संरचना का भी वैज्ञानिक अध्ययन हो रहा है। कुछ ही दिनों में उसके प्रतिफल आयेंगे तब नये दर्शन या धर्म की जरूरत की सम्भवतः उतनी आवश्यकता नहीं महसूस होगी। मेरा तो विचार है कि भारतीय प्राचीन धर्म एवं दर्शन अपने में परिपूर्ण है मात्र उन विचारों को जीवन में लाने की जरूरत है। दर्शन यद्यपि अपने में न तो पुरानी चीज की वकालत करता है और न नये विचारों को रोकता है अतः नयापन की सम्भावना से इन्कार नही किया जा सकता है। प्रो. जगन्नाथ उपाध्याय ने कहा-मैं भी ऐसा मानता हूँ, भारतीय दर्शनों का इतिहास अभी लिखा नहीं गया। भारतीय दर्शन मानव स्वयंभू ज्ञान के द्वारा स्वयंभू ऋषियों के द्वारा प्रसूत मान लिये गये हैं। मैं समझता हूँ, ऐसा इतिहास के संदर्भ में 'कथमपि नहीं है। सारे सामाजिक परिवर्तनों के इतिहास के बीच ही भारतीय दर्शनों का निर्माण हुआ है जिसका कि आज तक इस दृष्टि से अध्ययन नहीं हो रहा है। उपनिषदों का वेद के विरोध में खड़ा होना आकस्मिक नहीं है केवल स्वयंभू ज्ञान नहीं है, स्वयं प्रकाश ज्ञान नहीं है। बल्कि उसके पीछे धार्मिक और सामाजिक प्रश्न हैं जो कि खड़े हुए, जिसका कि तत्त्वज्ञान उपनिषदों के द्वारा आविर्भूत हुआ। . उपनिषदों के विरोध में जब बुद्ध खड़े होते हैं, तो बुद्ध केवल इसलिए खड़े नहीं होते कि बोधिवृक्ष के नीचे वह बुद्धत्व प्राप्त कर लें जो कि अलौकिक था, उसका लोक से मतलब नहीं था। बात यह थी कि यह सारी परिस्थितियां जो कि उपनिषदों और वेदों के विरोध में जा रही थी जिससे लोग ऊब चुके थे और सारी आर्थिक, धार्मिक परिस्थितियाँ और दार्शनिक परिस्थितियाँ ऐसी थी जिसमें बुद्ध खड़े हुए उसमें उन सारी परिस्थितयों का प्रतिबिम्बन बुद्ध के दर्शन के द्वारा होता है। बुद्ध के विरोध में नागार्जुन ने उन्हीं के आचार्य ने धर्म और संघ की परीक्षा की, तो उन्होंने नि:स्वभावता का सिद्धान्त प्रतिपादित कर दिया परिसंवाद-३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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