Book Title: Bharatiya Chintan ki Parampara me Navin Sambhavanae Part 2
Author(s): Radheshyamdhar Dvivedi
Publisher: Sampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi

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Page 354
________________ गोष्ठी का संक्षिप्त विवरण ३२९ हूँ, बल्कि मैं नये दर्शन के लिए कहता हूँ कि कार्य-कारणभाव में कारण को न आप क्षणमङ्गवाद मानिए और न क्षणिकता का सिद्धान्त मानिए, सब में गतिशीलता लाने के लिए तो क्षणभङ्गवाद है लेकिन उसे आप न स्वीकार करें, कम से कम नये दर्शन के लिए परिणामवाद की प्रगति तो स्वीकार करनी पड़ेगी। वैसे तो आप जानते ही हैं कि यह तन्त्र के दर्शनों ने स्वीकार किया। अपने परमशिव को भी नित्य-नित्य परिवर्तनशील उन्होंने स्वीकार किया। यद्यपि परमशिव को उन्होंने एक मात्र सत्ता स्वीकार किया, लेकिन परमशिव को जगत् से. भिन्न नहीं स्वीकार किया। जगत् और परमशिव जो उनका परम अध्यात्म है और उनका परम जगत् है-तान्त्रिकों में शैव तान्त्रिकों का, या अन्यतान्त्रिकों का उन्होंने अभेद स्थापित किया। मैं समझता हूँ जो अगला दर्शन होगा, वह परिवर्तनशील दर्शन होना चाहिए, परिवर्तनशील धर्म, परिवर्तनशील समाज व्यवस्था के लिए। तो उसमें कार्य कारण में कारण को अनित्य होना चाहिए। अनित्य से अगर परेशानी हो तो परिणामशील होना चाहिए और उस परिणामशीलता में जगत् की सभी वस्तु जिसमें ईश्वर और आत्मा सब हों, ईश्वरवादी का ईश्वर हो आत्मवादी का आत्मा भी हों, परिणाम के अन्दर होना चाहिए। तब वह एक परिणामशील समाज को उत्पन्न करेगा। दूसरी बात कारण एक न हो या दो तीन कारण न हो। आप असमवायिकारण को छोड़ दीजिए, यह तो पारिभाषिक स्थितियों में असमवायिकारण कहा जाता है। उपादानकारण और निमित्तकारण का नाम लिया जाता है। लेकिन कारण को, कारणबहुत्व को अगर लें और सम्पूर्ण कारण-सामग्री से अगर कार्य उत्पन्न हों, तो कारण सामग्री में चाहे ईश्वर को लाना हो तो उस प्रकार का गतिशील ईश्वर आवे, आत्मा को लाना हो तो गतिशील आवे या किसी का भी अगर गतिशील प्रतिबन्ध को स्वीकार करता है, तो कारण कोटि में आवे, सामग्रीकोटि में आवे और अगले कार्य-जगत् को जन्म दे। तो इसका मतलब यह है कि सामग्री जिसमें समाज, धर्म, नीति सब उसके कारण की कोटि में आ जाए। जो अब तक का समाज है, धर्म है, राजनीति है, अर्थनीति है, ईश्वर है, आत्मा है और सारी चीजें हैं, वह समग्र कारण कोटि में है और उस गतिशील कारण सामग्री से गतिशील नये जीवन का, समाज का उद्भव होना चाहिए। - कर्म-फलम्बन्ध-एक आखरी बात मैं कहना चाहता हूँ जो कार्य-कारण भाव से अत्यन्त सम्बद्ध है-कर्म-फलसम्बन्ध । कर्म-फल सम्बन्ध जो जीवन को यहाँ से परिसंवाद-३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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