Book Title: Bharatiya Chintan ki Parampara me Navin Sambhavanae Part 2
Author(s): Radheshyamdhar Dvivedi
Publisher: Sampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
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भारतीय चिन्तन को परम्परा नवीन सम्भवनाएं
विज्ञान के अविष्कारों ने यह बात बहुत धीरे-धीरे यूरोप के जन-मानस में पैदा की कि हम कुछ बातें ऐसी कर सकते हैं जो प्राचीनों ने नहीं की है । The Idea of Progress से पता चलता है की बड़ी कठिनाई से यूरोप के जन-मानस में यह स्थान ले रहा है कि कुछ प्रगति भी होती है, उन्नति होती है, हम मनुष्यजाति के लोग आगे बढ़ते हैं। धीरे-धीरे जैसे - जैसे विज्ञान की प्रगति होती गई यूरोपीय मनुष्य में यह विश्वास होता गया कि काफी मामलों में हम प्राचीन लोगों से आगे हैं । यूरोप का इतिहास देखें तो कदम-कदम पर विज्ञान और धर्म का झगड़ा मिलता है । विज्ञान की प्रगति को रोकने की कोशिश की गई। वैज्ञानिकों को जेल में डाला गया, स्वतन्त्र चितों को जिन्दा जला दिया गया। इसका यह नतीजा निकला कि धर्म और विज्ञान मैं विरोध है, ऐसा लोगों को मालूम होने लगा । और धर्म का, धार्मिकता का, धर्म ग्रन्थों का विरोध करके भी विज्ञान आगे बढ़ता गया ।
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इसका निचोड़ यह है कि ग्रन्थों की ईश्वरीयता में, ग्रन्थों की ईश्वरीय एवं देवी होने में संदेह होने लगा और आज दार्शनिकों के बीच शायद ही यूरोप में कोई ऐसा है जो किसी भी धर्मग्रन्थ को प्रामाणिक मानता है । यहाँ से बहुत सी समस्याएँ शुरू हो जाती है । धर्म-ग्रन्थों ने एक जीवन का खाका दिया था, एक जीवन का मार्ग बताया था । उस मार्ग का अनुगमन करते हुए मनुष्य यह महसूस करता रहा कि एक बार अगर उन ग्रन्थों के प्रति आस्था चली जाए, तब सारा प्रश्न, सारी जिम्मेदारी हमारे ऊपर आ पड़ती है कि हम जीवन का लक्ष्य कैसे बनाएँ ? तो सबसे बड़ा परिवर्तन जो आधुनिक युग में और पुराने लोगों में है, वह यह है कि आज का व्यक्ति किसी धर्मग्रन्थ की प्रामाणिकता मानने को कभी तैयार नहीं है । क्योंकि कम से कम यूरोप में ऐसा हुआ कि धर्म ग्रन्थों की बहुत-सी बातें झूठी निकलीं । हमारे यहाँ तो ऐसा इत्फाक से नहीं हुआ है । इसका यह अर्थ नहीं है कि धर्मग्रन्थों में जो लिखा है सब गलत है । ऐसी बात नहीं है । लेकिन हमें विवेक के साथ यह • देखना पड़ेगा कि धर्मग्रन्थों में कितना अंश ग्राह्य है। हम उनको स्वतः प्रमाण मान लें या ईश्वरीय मानकर या दैवीय मान कर चलना नहीं चाहते । तब जीवन का लक्ष्य क्या है ? नैतिकता क्या है ? अच्छाई क्या है ? बुराई क्या है ? साधना का स्वरूप क्या होना चाहिए ? ये सारे के सारे प्रश्न नये सिरे से खड़े हो जाते हैं, जैसा कि मैंने कहा, हमारी जिम्मेदारी बहुत बढ़ जाती है ।
डा० नीलकण्ड देशपाण्डेय में कहा-- दर्शन और समाज के है दर्शन के विश्लेषण के आधार पर मूल्यों का समर्थन धर्म करता है केवल विश्लेषण बन कर अतिरेक में पहुँचता है तो धर्म भी कर्म व्यवस्था का ढोंग
बीच कड़ी धर्म पर जब दर्शन
परिसंवाद- ३
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