Book Title: Bharatiya Chintan ki Parampara me Navin Sambhavanae Part 2
Author(s): Radheshyamdhar Dvivedi
Publisher: Sampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
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भारतीय चिंतन परम्परा को नवीन सम्भव नाए वहाँ तक अनुस्यूत रखता है। कर्म-फल सम्बन्ध आवश्यक है नीति के लिए, धर्म के लिए । लेकिन पुनर्जन्म आवश्यक नहीं है, पुनर्जन्म न स्वीकार करते हुए कर्म-फल की व्यवस्था होनी चाहिए। किंतु इसके लिए पुनर्जन्म का खण्डन न किया जाये। जो विश्वासानुसार कुछ लोग पुनर्जन्म स्वीकार करते हैं, करते रहें। लेकिन यह व्यवस्था दर्शन में हो कि पुनर्जन्म स्वीकार न करके भी कर्म-फल का सिद्धान्त बन जाए और यह जो कि व्यक्ति के साथ कर्म को जोड़ दिया गया है, कृत हानि न होने पाये, अकृत का अभ्यागम न होने पाये, नीति और धर्म की व्यवस्था न बिगड़ने पाये, इसके लिए जो दार्शनिकों ने सारा प्रयत्न किया था, वह एक दम सही बात है। उसकी सुरक्षा आज भी होनी चाहिए। लेकिन केवल व्यक्ति के साथ नहीं, व्यक्ति के साथ साथ और समूह के साथ भी। एक व्यक्ति फल भोग रहा है समूह के पापों का, राज्य के पापों का, विश्व के पापों का। अब कहें कि तुम तो अपने पूर्व कर्मों का फल भोग रहे हो, यह बात बड़ा हास्यास्पद है। इस तरह का क्या दर्शन है। जो कि सीधे दिखाई पड़ता है कि हम बेईमानी करना नहीं चाहते । ऐसे कारण बन जाते हैं, ऐसे सामाजिक व्यवस्थाएं बन जाती है जिसमें हम बेईमानी करने के लिए विवश हो जाते हैं और ऊपर से धर्म वाला, दर्शन वाला कहे कि तुम पापी हो, यह नहीं होना चाहिए। कर्म-फल सम्बन्ध व्यक्ति में रहेगा। लेकिन फल-भोग-व्यक्ति का फल समूह को मिलता है, समूह के कर्म का फल व्यक्ति को मिलता है, स्वीकार करना चाहिए।
दो सत्यों की स्थापना-दुनिया में पचासों प्रकार के सत्य हो सकते हैं, लेकिन दार्शनिक दृष्टि ने, जो भ्रम और प्रमा को ध्यान में रख करके दार्शमिकों ने, खास करके नागार्जुन ने, शंकराचार्य ने दो सत्य, तीन सत्य की कल्पना की। शंकराचार्य ने तो सीधे कह दिया-तमः प्रकाशवविरुद्धस्वभावः। एक प्रकाश है, दूसरा अन्धकार है--साफ कर दिया। लेकिन इस प्रकार का सत्य ठीक नहीं है। सत्यों का स्तर होना चाहिए, उसे विरुद्ध नहीं होना चाहिए। नागार्जुन ने दूसरी भूमिका अदा की। लेकिन दो सत्यवादी वे भी हैं। नागार्जुन की भूमिका में कुछ हो सकता है, समाज के लिए गुजाईश हो सकती है। क्योंकि उनका व्यवहार मिथ्या व्यवहार नही है । वे मिथ्या करते हैं एक नये व्यवहार बनाने के लिए। वहां से वो सत्य की यह कल्पना है।
प्रो. रामशङ्करमिश्र ( का हि. वि. वि. ) ने कहा-इस बात को हम स्वीकार करते हैं कि भारतीय दर्शन का लौकिक जीवन से कोई नजदीक का सम्बन्ध नही रहा और यह हमारे चिंतन-धारा की एक विशेष कमी रही है,
परिसंवाद-३
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