Book Title: Bharatiya Chintan ki Parampara me Navin Sambhavanae Part 2
Author(s): Radheshyamdhar Dvivedi
Publisher: Sampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi

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Page 346
________________ 'नये दर्शनों की संभावनायें' विषयक गोष्ठी का संक्षिप्त विवरण प्रो० करुणापतित्रिपाठी ( कुलपति सं० सं० वि० वि० ) की अध्यक्षता में तुलनात्मकदर्शनविभाग के द्वारा आयोजित 'नये दर्शनों को संभावनायें' विषयक 'धर्मंदर्शनसंस्कृतिसमिति' के तत्त्वावधान में त्रिदिवसीय (२६-३-७६ से ३१-३-७६) संगोष्ठी का उद्घाटन करते हुए प्रो. राजारामशास्त्री (कुलति -- काशीविद्यापीठ) कहा - आज दर्शन वाच्य एव पाश्चात्यदर्शन के रूप में प्रसिद्ध है । प्राच्यदर्शन आन्तरिक सत्यों से तथा पाश्चात्यदर्शन बाह्य सत्यों से प्रारम्भ होता है दोनों के इस आरम्भ बिन्दु के भेद से अनेक भेद हो जाते हैं । चेतना एक है वह अनेक विध जड़जगत् में एकरूपता का खोज करती है । आत्म प्रत्यक्ष से ज्ञेय चेतना में अनेकता के लिये अवकाश नहीं है, अतः उससे निर्मित एक ही दर्शन होना चाहिए । अनुभव के एक होने पर भी भाषा के माध्यम से उसको अभिव्यक्त करने पर दार्शनिक भेद लगने लगते हैं । युगानुरूप अभिव्यक्ति के कारण भी भेद होता है, कभी प्रतीकात्मक भाषा का प्रयोग होता है तो कभी चित्रात्मक । प्रवृति के क्षेत्र में आने पर अनेकता के लिए द्वार खुल जाते हैं इसलिए नये-नये दर्शन बनते जाते हैं । पश्चिम के दर्शन आत्मदर्शन नहीं है प्रत्युत नियम निर्धारण मात्र हैं । दैशिक, कालिक परिवर्तनों के कारण नियमनिर्धारण वाले दर्शन बदलते ही रहेंगे। बाद के नियम, प्रथम नियम से अधिक व्यापक होते हैं क्योंकि वे वाद की समस्याओं, परिस्थितियों आदि के भी संग्राहक होते हैं। ऐसी स्थिति में नयी दृष्टि पैदा की जा सकती है । जो अधिक व्यापक तथा समन्वय कारिणी हो । भारत में नवीन दर्शन पैदा न होने का कारण कालिक परिवर्तनों को महत्त्व न देना है। कालिक परिवर्तनों को ध्यान में रखकर यदि परिवर्तित जगत् की समस्याओं के समाधान के लिए दर्शन पैदा हो तो बहुत ही अ छा होगा, आशा है पण्डित वर्ग इस कार्य में आगे बढ़ें । उद्घाटन भाषण पर ने कहा- शास्त्री जी परिवर्तित ४१ Jain Education International प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए प्रो० जगन्नाथ उपाध्याय परिस्थितिओं में चिन्तन के परिवर्तन की बात करते परिसवाद - ३ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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