Book Title: Bharatiya Chintan ki Parampara me Navin Sambhavanae Part 2
Author(s): Radheshyamdhar Dvivedi
Publisher: Sampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
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गोष्ठी का संक्षिप्त विवरण
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उसमें विचारों को बांच देते हैं अतएव वह हमारे चिंतन को साँचे में मात्र ढाल देते हैं।
डा. रमाकान्त त्रिपाठी ने कहा पाश्चात्यदर्शन मोटे तौर पर विचारों का एक महल खड़ा करता है। जब कि भारतीयदर्शन विचारों से परे सत्य को प्रस्फुटित करता है और वह उसका लक्ष्य है।
डा. रामशङ्कर मिश्र ( का. हि. वि० वि० ) ने कहा-प्लेटो के अनुसार दर्शन पूर्वाग्रहों से निरपेक्ष दृष्टि रखकर अन्वेषण मात्र है। यद्यपि आज के दार्शनिक इसे नहीं मानते, फिर भी यह विचार वेदान्तदर्शन के समीप है। प्लेटो कोई आधार ले कर नहीं चलते जबकि वेदान्त आधार ले कर चलता है। किंतु प्लेटो की बुद्धि का अभिप्राय उच्चकोटि की बुद्धि है और वह इस अर्थ में वेदान्त से भिन्न है।
___ डा. हर्षनारायण ( का. हि. वि. वि. ) ने कहा-दर्शन एक सिस्टम है समग्र विचारधारा है जो जोवन के सभी सांगोपांग से सम्बन्धित है अतः इसकी संक्षेप व्याख्या सम्भव नहीं है। दर्शन का जन्म आश्चर्य में होता है प्लेटो तथा अरस्तू being qua being का अध्ययन करते हैं अतः कादाचित्क के पीछे अकादाचित्क की तलाश दर्शन है।
परम्परावादी विद्वान श्री केदारनाथ ओझा ( वाराणसी) ने कहा--प्रमाण के साथ प्रमेय' का निरूपण भारतीय दृष्टि से दर्शन है। पाश्चात्य में वस्तु और प्रमाण का विवेचन पृथक-पृथक् है। सत्य चूंकि कालान्तर में असत्य सिद्ध हो जाता है अतः दर्शन का कार्य निष्कर्ष की प्राप्ति के साथ सम्बन्ध विचार का है, विचार का निष्कर्ष विचारणीय विषय के विचार से भिन्न होता है।
समाजवादी चिन्तक तथा प्रसिद्ध विचारक प्रो० श्रीकृष्णनाथ (काशी विद्यापीठ) ने कहा-दृष्टिओं को छोड़ कर जैसा है वैसा ही भीतर बाहर देखना दर्शन है। मार्क्स ने दर्शन का प्रयोजन जगत में परिवर्तन माना है पर यहाँ विचार करना चाहिए कि क्या दर्शन का प्रयोजन दर्शन के अन्दर है या बाह्य जगत् में भी है। कुछ लोग बाह्य जगत् में भी मानते हैं, कुछ दर्शन का प्रयोजन दर्शन में ही देखते हैं।
श्री सुरेन्द्रनाथ द्विवेदी ( सं० सं० वि० वि० ) ने कहा-दृश्य, द्रष्टा के सम्बन्ध के ज्ञान के साथ सम्बन्ध का विश्लेषण दर्शन है। बीच में हस्तक्षेप करते हुए प्रो० रमाकान्त त्रिपाठी ( का हि० वि० वि० ) ने कहा--दर्शनों में भेद है
परिसंवाद-३
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