Book Title: Bharatiya Chintan ki Parampara me Navin Sambhavanae Part 2
Author(s): Radheshyamdhar Dvivedi
Publisher: Sampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi

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Page 331
________________ धर्म ? दर्शन ? विज्ञान ? तीन प्रश्न चिन्हों की अद्यतन नियताप्ति डाः मायाप्रसाद त्रिपाठी दर्शन या दर्शन का अभिषवण जितने रूप या मात्रा में मानवता को शारीरिक, मानसिक शान्तिदे पाता है, उतने रूप या मात्रा में मैं उसकी सार्थकता द्वारा विकल्पहीन मानता हूं। उसमें निर्माण या मोक्ष का अतिशय अथवा एकान्त विचार प्रायेण बुद्धि-वैभव ही कहलाने का अधिकारी होता है। दर्शन की मोक्षात्मक, निर्वाणात्मक सत्ता अवश्य हो सकती है, पर उसे लेकर बहुत परेशान होने और बुद्धि-व्यायाम करने की आवश्यकता नहीं। वह कहीं की औपवस्ति शालता हो सकती है। अनिवार्य पथ, कुटिया, आवास एवं गन्तव्य नहीं। एक बात और, यहाँ मानवता में व्यष्टिसमष्टि दोनों समाविष्ट हैं। धर्म और दर्शन की पृथक् सत्ताएँ स्वीकार करना श्रेयकर होगा। वैसे उनमें कुछ या बहुत कुछ उभयनिष्ठ हो सकता है। आज संसार को और अधिक धर्म और दर्शन की आवश्यकता नहीं। अपरिहार्य आवश्यकता है पुराने धर्मो कर्मकाण्डों को छोड़कर-दर्शनों में कही बातों को कार्यान्वित करने की। विश्व में संप्रति तथा अतः परं भी सबसे पहले और दर्शन के चिन्तनमन्थन का एक मात्र उद्देश्य होना चाहिए पहले के महान् प्रतिपादनों-अनुभवों का कार्यान्वय । धर्म तो सभ्यता के आरंभ से ही प्रायेण मानव जीवन में घुसा रहा। किन्तु कहीं कहीं उसका वणिक्-स्वरूप, बढ़े हुए क्षत्रियत्व की हिंस्रता-यदाकदा साहसिकता बड़ी स्पृहणीय उथलपुथल मचाती रहीं। दर्शन धर्म के ढंग पर समग्र मानव जीवन में पूर्णतया कभी नहीं घुस पाया, क्योंकि उद्भव प्रचार-प्रसार में वह मूर्धन्य व्यक्तियों की उड़ान भर कर रह हो गया। देशकाल, समाज, राजनीति के पुटपाक से वह जितना धरती के कोने-कोने में पहुँचा, उतना ही धरती का हो पाया। आज के नव्य' या नव्यात्मक अथवा तथाकथित नूतन दर्शनों के बारे में भी यही लागू होता है। परिसंवाद-३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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