Book Title: Bharatiya Chintan ki Parampara me Navin Sambhavanae Part 2
Author(s): Radheshyamdhar Dvivedi
Publisher: Sampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
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भारतीय चिन्तन की परम्परा में नवीन सम्भावनाएं कुटुम्बकम्" की आदर्श भावना को जगाना पड़ेगा। व्यक्ति के सुधार से ही समाज सुधार सम्भव होगा।
धूयतां धर्म सर्वस्वं श्रुत्वा चैवावधार्यताम् । -
आत्मनः प्रतिकलानि परेषां न समाचरेत् ॥ की भावना के प्रोद्दिप्त होते ही समता, एकता, विश्वबन्धुत्व का आदर्श उपस्थित होने लगेगा।
अष्टादशपुराणेषु व्यासस्य वचनद्वयम । परोपकारः पुण्याय पापाय परपीडनम् ॥
का आदर्श चरितार्थ होगा। 'मानव मानव एक समान' इतने से सन्तोष न होकर प्राणी प्राणी एक समान का सिद्धान्त शिखरारूढ़ होगा। प्राणिमात्र में जब परमात्मा विराजमान हैं, तो सभी की समता का दर्शन उचित है। सभी प्राणियों में आत्मदृष्टि वेदान्तदर्शन का चरम लक्ष्य है। तथा सबमें परमात्मदृष्टि भक्तिदर्शन का परमलक्ष्य है। इस उच्चतम दृष्टिकोण को आगे रखकर चलने में व्यक्तिगत एवं समाजगत धार्मिक नियमों के पालन में भी कोई बाधा न होगी, उनमें बहुतर अंश आपद्धर्म के अन्तर्गत भी समाहित हो जायेंगे। क्योंकि भारतायदर्शनों की दृष्टिधर्म धर्म को साथ लेकर चलती है। ये दर्शन परलोकवादी, जन्मान्तरवादी तथा मोक्षपथ प्रदर्शक हैं। इनके द्वारा धर्मकर्मविहीन केवल उच्चतम आदर्शवादी समाज की की स्थापना नहीं, अपितु धर्मकर्मगर्भित उच्च आदर्श परिपालक व्यक्ति की रचना के साथ वैसे समाज की रचना का लक्ष्य है।
यद्यपि धार्मिक नियमों का बन्धन क्लेशकर प्रतीत होता है, वह मानवता के अस्तित्व का संरक्षक है। जैसे एक घड़ा दूध से भर दीजिये, कपड़े से उसका मुँह बाँध कर गङ्गाजी की धारा में गिरा दीजिये, कुछ देर में कोई निमज्जनशील व्यक्ति उस घड़े को बाहर निकाले, दुध ज्यों का त्यों मिलेगा, क्योंकि घड़े का मुँह बँधा था, एक रत्ती जल उसमें नहीं गया। न तो उसका दूध ही बाहर आया। यदि मुख बिना बाँधे ही दूध भरा घड़ा जल में प्रक्षिप्त होता तो फिर दूध का मिलना सम्भव नहीं था। वह तो धारा में बनकर समुद्र में पहुंच जाता। इसी प्रकार धार्मिक नियमों का बन्धन मानवता का आस्तित्वाधायक ही है, वह है-सत्य का बन्धन, अहिंसा का बन्धन, परोपकार का बन्धन आदि। आज इन्हीं नियमों के बन्धन को शिथिल कर देने का फल सबको भोगना ही पड़ रहा है।
परिसंवाद-३...
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