Book Title: Bharatiya Chintan ki Parampara me Navin Sambhavanae Part 2
Author(s): Radheshyamdhar Dvivedi
Publisher: Sampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
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भारतीय चिन्तन की परम्परा में नवीन सम्भावनाएं
ऐहिकानुष्मिक को घपड़सपड़ वाला असन्तुलित मिश्रण ( mixture ) बनाने की अपेक्षा एक सुष्ठु नवीन गुणधर्म वाला ओषधिधमी यौगिक ( compound) बनाना होगा। इन सबके व्यवहार्य सिद्धान्त समाहार-जीवन पद्धति को मैंने "औचित्य जीवन" की संज्ञा दी है ।'
विज्ञान उद्भव में दर्शन का सहयोगी या नियामक हो, दर्शन परिणति में विज्ञान का साम्यवादी शासक हो; नृशंस, बर्बर स्वैरी सम्राट नहीं। वैसे यह भावना उत्तरोत्तर जड़ जमाती जा रही है।
दर्शन को विज्ञान सृष्टिब्रह्माण्ड, पदार्थ प्रतिपदार्थ, कालाकाल, उनके सभी पूर्वापर संबंधों, ऊर्णनाभ जालों, यौगपद्यों को शुद्ध शुद्ध नये ढंग से समझने की शक्ति देगा। इस अन्योन्याश्रयता से दोनों का माँगल्यविधायक विकास होगा।
दृश्य प्रमाजगत के नाना भेदों के मिटाने में भी विज्ञान ने दर्शन को बड़ी ठोस सहायता की है-करता रहेगा। विज्ञान की दर्शन के लिए यह सहायता उत्तरोत्तर सत्ता (existence or non-existence ) संहति ( mass ) पदार्थ-ऊर्जा और चिद् की सभी जातियों के अनिर्वचनीय सभी संकलन से प्राप्त अनुदान की भाँति बढ़ती जायेगी। विचारों, तरंगों तथा पदार्थो की एकता बनाकर विज्ञान ने दर्शन की प्रत्न तथा नव्य आविष्कृत, अनाविष्कृतः उच्चारित, अनुच्चारित सभी प्रस्थापना संभावना के एकान्तिक अभिसरण (convergence ) की बात स्पष्ट कह दी है
और उसके अतिश्लाघनीय एवं लोकसंग्रहात्मक ढंग से हमे लिए जा रहा है श्रेणी व्यवहार ( Series behaviour ) के एक एकान्तिक संकलन (६ ) की ओर जिसके लिए एक प्राचीन अभिधान ईश्वर या ईश्वरत्व बोध व्यवहृत होता आया है। मोक्ष निर्वाण की इच्छा और विवेचन इसी संवेदन से निष्पन्न होने चाहिए।
दर्शन और विज्ञान के योगपद्य, यमजता या संगीत वाली संगत ही सही, ने यह सिद्ध कर दिया है कि सत्ता ( Power ) और साधन ( Armanent and resources ) के समाजीकरण या साम्यवाद ( पुराना पड़ता जा रहा बहुत से लोगों को चौंकाने वाला अभिधान) से ही विश्व शान्ति और लोकसंग्रह ही नहीं त्रिलोक संग्रह संभाव्य और उपलब्ध हो सकता ।
मार्क्स ( इस नाम से आंदोलित या उच्चारित होने की आवश्यकता नहीं ), लेनिन तथा गाँधी आदि विचारकों ने साधनों के विकेन्द्रीकरण, समाजीकरण या १. औचित्य जीवनम् डा० मायाप्रसाद त्रिपाठी ।
परिसंवाद-३
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