Book Title: Bharatiya Chintan ki Parampara me Navin Sambhavanae Part 2
Author(s): Radheshyamdhar Dvivedi
Publisher: Sampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi

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Page 322
________________ मौलिकदर्शन की सम्भाव्य दिशाएं २९७ अभिनिवेश ने उसे मूढ़ग्राहों का मालखाना बना डाला। मार्क्सवाद को ही लीजिए। मार्क्स मानवात्मा को मूढ़ग्राह से छुटकारा दिलाने और व्यक्ति-स्वातन्त्र्य का पथ प्रशस्त करने के लिए अवतरित हुआ था, किन्तु उसके अनेक अनुयायी उसे सबसे बड़ा आप्त मानकर और उसके वचनों को भगवद्वचन का दर्जा दे कर मौलिक, साहसपूर्ण चिन्तन का मार्ग अवरुद्ध करते दिखायी देते हैं। वैदिकदर्शन सृष्टि विद्या-प्रधान दर्शन है, उसका आरम्भ सृष्टि-सम्बन्धी चिंतन से होता है। वेदान्तिकदर्शन आत्मविद्या-प्रधान दर्शन है, उसका आरम्भ आत्मानुसन्धान से होता है। बौद्ध दर्शन अनात्म प्रधान दर्शन है, उसका आरम्भ आत्म-विषयक शाश्वतवाद और उच्छेदवाद के खण्डन से होता है। किन्तु आज आवश्यकता है मानव-प्रधान दर्शन की, दार्शनिक चिन्तन को मानव-विषयक चिंतन से आरम्भ करने की। महाभारत में कही कहा गया है -- 'गुह्य ब्रह्म तदिदं वो ब्रवीमि न मानुषाच् छष्ठतरं हि किञ्चित् ।' मार्क्स ने घोषणा की थी--'To be radical means to go to the root and root is man himself'२ अर्थात् मौलिकता का अर्थ है मूल तक पहुँचना, और मूल स्वयं मानव है । वस्तुतः आज मानव-मूलक दर्शन ही चल सकता है। इस दिशा में पाश्चात्यदर्शन. विज्ञान और लोकतन्त्र में कोई तालमेल नहीं दिखायी देता। लोकतन्त्र यह मान कर चलता है कि व्यक्ति साधन नहीं, साध्य है। किन्तु मार्क्सवादी तथा अन्य भौतिकवादी दर्शन भूत-तत्त्व को ही मौलिक सत्ता मान कर चलते हैं । उनके अनुसार आत्मा भूत का ही धर्मान्तर परिणाम है, कोई मौलिक, स्थायी सत्ता नहीं। उनके लिए व्यक्ति एक क्षणभङ्गुर सत्ता है, जिसका अपना कोई स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं। ऐसी मान्यता रखने वाले समाज में व्यक्ति कभी साध्य नहीं माना जा सकता, वैयक्तिक स्वातन्त्र्य का आग्रह नहीं दीख सकता, एक-एक व्यक्ति के मत का वह महत्त्व नहीं हो सकता जो लोकतन्त्र की विशेषता है। नश्वर ध्यक्तित्व, क्षणभङ्गुर आत्मा के लिए, इतनी हाय-तोबा क्या ? जो वस्तु रहने वाली नहीं है, जो केवल एक आकस्मिक घटना है, जिसको सत्ता का कोई भरोसा नहीं, वह अपना साध्य स्वयं कैसे ? बौद्धदर्शन की आत्मा अनिवार्यतः एक ही जीवन तक रहने वाली वस्तु नहीं, वह आगे अपरिमित काल तक चलने वाली सत्ता है, तब तक चलने वाली जब तक कि उसका निर्वाण न हो जाय । तथापि पुद्गल-सन्तान के १. महाभारत, शान्तिपर्व २६६.२० २. मार्क्स, इरिक फ्रॉम, द सेन सोसायटी, रटलेज पेपर बैंक ( लण्दन : रटलेज और केगन पॉल, १९६३), पृ० २५३, में उद्धृत परिसंवाद-३ ३८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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