Book Title: Bharatiya Chintan ki Parampara me Navin Sambhavanae Part 2
Author(s): Radheshyamdhar Dvivedi
Publisher: Sampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
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मौलिक दर्शन की सम्भाव्य दिशाएं
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'खुदी को कर बुलन्द इतना कि हर तकदीर के पहले।
खुदा बन्दे से खुद पूछे बता तेरी रजा है क्या। यही तक नहीं, इक्बाल का व्यक्ति विधाता का शिकार खेलने का भी हौसला रखता है
'दर दश्ते जुनूने मन जिबील ज़बूं सैदे।
यज्दाँ व-कमन्द आवर ऐ हिम्मते मर्दानाँ ।' अर्थात् मेरे आखेट-वन में जिब्रील जैसा देवदूत कोई अच्छा शिकार नहीं है। हे वीर पुरुष ! विधाता पर डोर फेंक। इसी स्वर में वागाम्भ्रिणी नामक वैदिकऋषिका शङ्खनाद करती है
'यं कामये तं तमुग्न कृणोमि, तं ब्रह्माणं, तमृषि तं सुमेधाम् ।" पञ्चस्कन्धों के संघात में यह दम-बम कहाँ आ सकता है। किसी बौद्ध कवि का श्लोक है--
'नर्तकीभ्रलताक्षेपो न ोकः परमार्थतः।
परमाणुसमूहत्वादेकत्वं तस्य कल्पितम् ॥२ यह संघातवाद जैसे नर्तकीभ्रलताक्षेप का सारा मजा किरकिरा कर देता हैं वैसे ही व्यक्तित्व की सारी गरिमा पर पानी फेर देता है। हमारी मान्यता है कि भावी भारतीयदर्शन का स्वरूप जो भी हो, यदि उसे प्रामाणिक बनना है तो पुरुष के विषय में वैदिक दृष्टिकोण से पर्याप्त प्रेरणा प्राप्त करनी होगी।
वैदिक पुरुषवाद की एक अन्यतम विशेषता यह है कि उसके अनुसार पूर्णता पुरुष में ही प्रच्छन्न है बस उसे उजागर करना है। यह मत भलीभाँति प्रतिपादित होने पर वर्तमान विज्ञान-युग नितान्त अनुकूल पड़ेगा। आज का मानव महत्त्वाकांक्षी मानव है, जो सृष्टि-विजय की आकांक्षा ले कर चला है। यदि सृष्टि के परे कुछ हैं तो वह उस पर भी अपनी डोरी फेंकने का हौसला रखता है। सुचिन्तित पूर्णत्वगर्भ व्यक्तित्व का दर्शन ही उसे अपील कर सकता है। १. (शाकला-शैशिरीया ) ऋग्वेद-संहिता २०.१२५.५ २. न्यायवातिंकतात्पर्यटीका १.१.१० में उद्धृत
परिसंवाद-३
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