Book Title: Bharatiya Chintan ki Parampara me Navin Sambhavanae Part 2
Author(s): Radheshyamdhar Dvivedi
Publisher: Sampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
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भारतीय चिन्तन की परम्परा में नवीन सम्भावनाएं
पर्यवसान, विरोध की ही बौद्धदर्शन कामना करता है, अतः वह उसके लिए कोई पवित्र वस्तु नहीं । इस प्रकार हम देखते हैं कि पश्चिमी भौतिकतामूलक ष्टकोण व्यक्ति को पानी के बुलबुले के समान आकस्मिक और भङ्गुर बतलाता है और इस प्रकार उसका महात्म्य घटा देता है, जब कि उसका लोकतन्त्र व्यक्ति की अपरिमित मर्यादा, पवित्रता, महत्ता की घोषणा करता है । वही दर्शन लोकतन्त्र के उपयुक्त हो सकता है जो किसी न किसी रूप में व्यक्ति को वस्तुसत्, स्वतन्त्र और स्थायी मान कर चले, और ऐसा दर्शन अब अलीक हो चला है । भारतीय इस दिशा में मौलिक योगदान कर सकते हैं ।
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व्यक्ति का वैज्ञानिक, भौतिक रासायनिक विश्लेषण करते हुए हरवर्ड ने बतलाया है कि अधोलिखित नुस्खा व्यक्ति के निर्माण के लिए पर्याप्त है
दस गैलन के पीपे को भरने के लिए पर्याप्त जल; साबुन के सात डंडों के लिए पर्याप्त चर्बी; नौ सहस्र पेन्सिलों के लिए कार्बन;
बाईस सौ दियासलाइयों के लिए फास्फोरस;
एक मध्यम आकार की कील के लिए लोहा;
गियों के एक दर्बे की सफेदी के लिए पर्याप्त चूना, थोड़ी मात्रा में मैग्नेशियम और गन्धक ।
बस, व्यक्ति तैयार। इसके विपरीत, वेदान्त मानवात्मा को साक्षी चैतन्य घोषित करता है जो इस नुस्खे का भी साक्षी होने के कारण उससे अतीत है । वस्तुतः औपनिषद पञ्चकोश सिद्धान्त के आधार पर व्यक्ति का एक सर्वाङ्गपूर्ण रूप खड़ा किया जा सकता है और अपेक्षित महिमा से मण्डित भी । वेद के अनुसार पुरुष, व्यक्ति, देवताओं की पुरी हैं, ब्रह्म की पुरी है । " पुरुष का एतादृश स्वरूप ही उसकी आज सर्वसम्मत पवित्रता का आधार बन सकता है।
इस दृष्टि के अनुसार व्यक्ति केवल सत् नहीं, केवल सच्चित भी नहीं, स्वतन्त्र भी है । उसके स्वातन्त्र्य का अपर नाम है आनन्द | इस प्रकार व्यक्ति तत्त्वतः सच्चिदानन्द है । अतः व्यक्तित्व अभिशाप नहीं, एक वरदान है, जिसका उच्छेद नहीं, विकास अपेक्षित है। इक्बाल ने व्यक्ति को इतना ऊँचा उठाया कि वह विधाता से होड़ लेने लगा-
१. ( शौनकीया ) अर्थवेद संहिता १०.२,२८, ३०-३१
परिसंवाद - ३
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