Book Title: Bharatiya Chintan ki Parampara me Navin Sambhavanae Part 2
Author(s): Radheshyamdhar Dvivedi
Publisher: Sampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
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भारतीय चिन्तन की परम्परा में नवीन सम्भवनाएं
में देखने को मिलती है, किन्तु उनके पास अपेक्षित दृष्टि का अभाव ही पाया
है ।
वैदिक वाङ्मय से मथ कर उधर मधुसूदन ओझा ने ढेर सा दर्शन-नवनीत निकाला है जिसका हमें पता ही नहीं है । यदि ओझा के ग्रन्थों की छानबीन की जाय तो हो सकता है कि उसमें कुछ आश्चर्यजनक सामग्री प्राप्त हो । खेद है कि उनकी सारी कृतियाँ जो अधिकांशतः अप्रकाशित हैं नष्ट प्राय हैं । मौलिक दर्शन के सिसृक्षु को इधर ध्यान देना चाहिए। मौलिक दर्शन आकाश से नही टपकता, परम्परा से ही प्रादुर्भूत होता है।
मौलिक दर्शन शब्द - प्रमाण की थुन्नी के सहारे खड़ा नहीं किया जा सकता । प्रायः सभी भारतीय दार्शनिक शब्द प्रमाणक रहे हैं, वे चाहे श्रौतस्मार्त परम्परा के अनुयायी हों, चाहे जैन अथवा बौद्ध परम्परा के । सभी अपने आद्याचार्यों को परम आप्त और स्वतः प्रमाण मान कर चलते प्रतीत होते हैं । किन्तु यदि ध्यान से देखा जाय तो पता चलेगा कि स्वत: प्रमाण बस एक है, स्वसंवित् । कोई भी प्रमाण स्वसंवित् से मान्यता ले कर ही प्रमाणत्वेन गृहीत हो सकता है। श्रुति का श्रुतित्व, प्रमाणत्व उसके स्वसंवित द्वारा अनुमोदित होने में ही है । वस्तुतः श्रुति अश्रुति का निर्णय भी संवित् का ही कार्य है। सच पूछा जाय तो अन्ततः प्रमाण एक ही है, स्वसंवित् । नैयायिक ठीक ही तो कहता है -- 'संविदेव हि भगवती वस्तुपगमे नः शरणम् ।" स्वसंवित् के उपमान से परसंवित् भी प्रमाणत्वेन ग्राह्य हो जाती है । इसके अतिरिक्त संविन्मूलक तर्क (अनुमान, उपमान, शब्द, अर्थापत्ति, आदि ) भी हमारे ज्ञान की श्रीवृद्धि करता है, अतः वह भी प्रमाण बन जाता है। इस प्रकार प्रमाणों की संख्या तीन हो जाती है, जिनमें से एक स्वतः प्रमाण है । एक स्वोपज्ञ कारिका है
'स्व-संवित्, पद-संविच् च, तर्कस् तन्मूलकस् तथा 'प्रमाणत्रितयं ज्ञेयम्, स्व-संवित् तु स्वतः प्रमा ॥२
श्रुति का, आप्त-वचन का, बुद्ध वचन का पर्याप्त महत्त्व और प्रामाण्य है, किन्तु स्वतः प्रामाण्य कदापि नहीं । आप्त-स्वतः प्रामाण्यवाद मौलिक दर्शन के उदय में बहुत बड़ा बाधक है। महायान का उदय देश में एक बहुत ही बड़ी दार्शनिक क्रान्ति का प्रतीक था, किन्तु मानना होगा कि बुद्ध को परम आप्त, देवाधिदेव, और उनके वचन को श्रुति-वचन से भी अधिक प्रामाणिक, स्वतः प्रमाण, सिद्ध करने के
१. न्यायवार्तिकतात्पर्यटीका २.१.३६, पृ० ३९९
२. लेखक- कृत 'प्रमाणसङ्ख्या विप्रतिपत्तिकारिकाः '
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