Book Title: Bharatiya Chintan ki Parampara me Navin Sambhavanae Part 2
Author(s): Radheshyamdhar Dvivedi
Publisher: Sampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
View full book text
________________
२९४
भारतीय चिन्तन की परम्परा में नवीन सम्भावनाएं
द्वितीय श्रेणी के दर्शनों का लोप हो चला है। यहाँ यदि कोई दर्शन चल रहा है तो वह चतुर्थ श्रेणी के अन्तर्गत आता है, जो अब पञ्चम और षष्ठ श्रेणी के दर्शन पर भी आक्रमण करने लगा है। तथापि इस चतुर्थ श्रेणी में मौलिक योगदान शून्य ही बैठता है। हमारी सारी कोशिश यही रहती है कि दर्शन को अधिक से अधिक लाक्षणिक (Technical ) बना दिया जाय । हम वस्तुतः दर्शन के टेक्नीशियन बनते जा रहे हैं। हमें इसका तनिक भी आभास नहीं रह गया है कि दर्शन के इतिहास में लाक्षणिकता का आग्रह किसी मौलिक दार्शनिक प्रवृत्ति की आधारशिला नहीं बन सका है। मौलिक दर्शन का उदय तत्त्व के साक्षात्कार ( Encounter with reality ) की अपेक्षा करता है, न कि विषय-वस्तु के विसर्जन ( Dropping of the object) की। हमारी धारणा है कि जब लाक्षणिक दर्शन का उत्कर्ष होता है तब रचनात्मक दर्शन का अपकर्ष होता है । वस्तुतः लाक्षणिकदर्शन तभी उपयोगी सिद्ध होता है जब वह रचनात्मक दर्शन के अधीन कार्य करता है।
हमें दर्शन की उक्त छहों विधाओं में मौलिक योगदान कर सकने वाली प्रतिभाओं की प्रतीक्षा है।
अच्छा, मौलिकदर्शन शून्य में नहीं बनता। ( मौलिक ) दर्शन का पौधा परम्परा की उर्वर भूमि से प्राण खींचता और पल्लवित, पुष्पित, तथा फलित होता है। वस्तुतः अतीत की थाती को पचाये बिना मौलिक दर्शन का दर्शन स्वप्न-दर्शन है। अतः हमें अतीत का दायित्वपूर्ण आकलन करने की शक्ति चाहिए। भावी निर्माण, पुनर्निमाण, नवनिर्माण के लिए अतीत का आकलन, इतिहास का अनुसन्धान, अपरिहार्य है। हमारे दर्शनज्ञों में इस चेतना का अभाव दुःखद है। विचारों के इतिहास को हेगल और लण्ज्वाय जैसे दार्शनिक दर्शन की एक महत्पूर्ण विधा के रूप में विकसित कर चुके हैं, स्पॅग्लर और सोरोकिन जैसे इतिहासदार्शनिक दर्शन के वैविध्य को सांस्कृतिक विकास-धाराओं, विशिष्ट संस्कृतियों के वैविध्य से जोड़ कर सम्बद्ध संस्कृतियों के सन्दर्भ में दर्शन का आकलन-मूल्यांकन करने की आवश्यकता पर बल दे चुके हैं, किंतु हमारे यहाँ दर्शन के क्षेत्र में किसी भी कारण से प्रविष्ट और सुचर्चितवाद पर इतिहासातीत संस्कृति-निरपेक्ष, भाव से विचार-विमर्श होने लगता है। जाने जा सकने योग्य विषयों का क्षेत्र असीम है। सब कुछ जानना सम्भव नहीं, और न आवश्यक ही है। इस सम्बन्ध में धर्मकीति की चेतावनी स्मरणीय है
परिसंवाद-३
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org