Book Title: Bharatiya Chintan ki Parampara me Navin Sambhavanae Part 2
Author(s): Radheshyamdhar Dvivedi
Publisher: Sampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi

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Page 320
________________ मौलिक दर्शन की सम्भाव्य दिशाएं तस्याऽनुष्ठेयगतं ज्ञानमस्य कीटसङ्ख्यापरिज्ञानं तस्य नः विचार्यताम् । क्वोपयुज्यते ? साम्युपायस्य वेदकः । पावे स्वस्थ यः प्रमाणमसाविष्टो, न तु सर्वस्य वेदकः ॥ दूरं पश्यतु वा मा वा तत्त्वमिष्टं तु पश्यतु । प्रमाणं दूरदर्शी चेदेत गृधानुपास्महे ॥ Jain Education International यूरोप और अमेरिका में वाक्य विश्लेषण- पर्यवसायी दर्शन का उदय दार्शनिक प्रतिभा की ह्रासोन्मुखता से सहकृत दार्शनिकम्मन्य की हीनता - ग्रन्थि तथा आत्मपीड़नरति (maschism ) के कारण घटित हुआ है, ऐसा हर्बर्ट माकू ज़ े जैसे चिन्तक क मत है । २९५. तो हम कहना चाहते थे कि दार्शनिक चिन्तन के प्रति ऐतिहासिक दृष्टि के अभाव में हमारे यहाँ मौलिक दर्शन के समुदय की शुभ घड़ी आ ही नहीं सकती । और इतिहास का तात्पर्य वह अधकचरा दर्शनेतिहास नहीं जो आज प्रचलित है । तदर्थ दर्शन के आदि स्रोत वैदिक वाङ्मय को भलीभाँति खँगालना तथा प्रत्येक दर्शन के विकास के नये सिरे से अध्ययन का उपक्रम आवश्यक है । इसे अंग्रेजी में ( genetic study ) कहते हैं । वस्तुतः दर्शनेतिहास उपर्युक्त पश्चम दर्शन श्रेणी के अन्तर्गत आता है, और इसमें मौलिक योगदान के लिए पर्याप्त अवकाश दिखायी देता है | दर्शन -संग्रह सम्बन्धी प्रयत्न इस देश में प्रायः १२०० वर्ष से निरन्तर चला आ रहा है । भारतीय दर्शन के इतिहास लेखन की परम्परा भी लगभग दो सौ वर्ष पुरानी हो चुकी है। किन्तु यहाँ वास्तविक दर्शनेतिहास की अभी भी प्रतीक्षा है । मैक्समूलर से लेकर यदुनाथसिनहा तक सभी तथोक्त दर्शनेतिहासकार प्रायः दर्शन -संग्रह से आगे नहीं बढ़ सके हैं । यदि उनकी पुस्तकों से विभिन्न दर्शनों से सम्बद्ध स्थल पृथक् कर दिये जायँ तो वे सर्वथा स्वतन्त्र पुस्तिकाओं के रूप में बिखरे दिखायी देंगे । ऐसा नहीं लगेगा कि किसी एक पुस्तक के विविध अवयव बिखर गये हैं । वास्तविक दर्शनेतिहास की आवश्यकता की यत्किञ्चित् चेतना हमें पहली बार कार्ल एच० पॉटर १. प्रमाण - वार्तिक १.३३-३५ २. हर्ट मर्कज़ One-Dimensional Man ( चतुर्थ संस्करण, W. C. I Sphze Book, Ltd. १९७० ) पृ. १४१ For Private & Personal Use Only परिसंवाद - ३ www.jainelibrary.org

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