Book Title: Bharatiya Chintan ki Parampara me Navin Sambhavanae Part 2
Author(s): Radheshyamdhar Dvivedi
Publisher: Sampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
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नये जीवन दर्शन की कुछ समस्याएं और सम्भावनाएं
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लिए आज अहिंसात्मक प्रतिकार अत्यन्त आवश्यक है। राज और समाज सत्ता के मुकाबले व्यक्ति अपने स्वत्व की रक्षा अहिंसा के सक्रिय प्रयोग से ही कर सकता है। प्राचीन भारतीयचिंतन और जीवन व्यवस्था में राज्य और समाज की सत्ता की अवज्ञा के लिए प्रस्थान प्रायः नहीं के बराबर है। व्यक्तिगत साधना के स्तर पर कोई कुछ शायद कर भी सकता हो तो भी राजा और समाज को वर्णाश्रम व्यवस्था के खिलाफ सामूहिक अहिंसक प्रतिकार का निषेध ही है। मैं मानता हूँ कि आज के मनुष्य की आवश्यकता राज्य और समाज की सत्ता को जितना मानना है, उससे ज्यादा इनकार करना है।
आज के मनुष्य की एक समस्या शान्ति की है। शान्ति सिर्फ निःशस्त्रीकरण या अहिंसक प्रतिकार नहीं है। यह युद्ध या शोषण का अभाव मात्र नहीं है। अन्दरबाहर की वह शान्ति जो भारतीय चिंतन और साधना का लक्ष्य रही है, वह शांति भी मनुष्य की जरूरत है। लेकिन शान्ति, स्वतन्त्रता और समता और समृद्धि और अहिंसक प्रतिकार के साथ. इसके बिना नहीं। परतंत्रता, विषमता, गरीबी हिंसा और अशांति के बीच सिर्फ आन्तरिक शान्ति काफी नहीं। शायद वह बहुत दूर तक सम्भव भी नहीं। अन्तर-बाहर दोनों ही में शान्ति की तलाश है । लेकिन जब तक बाह्य पर्यावरण में शान्ति न हो तब तक अन्दर अशांत बने रहना या जब तक अन्दर शान्ति न आए तब तक बाहर अशांति, लक्ष्य नहीं हो सकती। यह दूसरे को खारिज करने वाली कोटियाँ नहीं है, पूरन करने वाली हैं। .
अब अगर ये आज के मनुष्य की चिंता के विषय हैं तो इनके अनुरूप हमें नये चाल के चिंतन और आचरण की आवश्यकता है। इनके लिए प्राचीन और नवीन, प्राच्य और पाश्चात्य, शास्त्र और शिल्प से जो भी काम का हो वह ले लेना जैसा है, जो काम का नहीं है वह छोड़ना जैसा है। इसमें मान, तृष्णा और दृष्टि के बन्धन बाधक हैं। प्राच्य या पाश्चात्य का मान, प्राचीन या नवीन का मान, तृष्णा और दृष्टि के बंधनों से मुक्त हो कर नये दर्शन की जरूरत है। अन्दर-बाहर देखना बिना किसी पूर्वाग्रह के और फिर उस साक्षात्कार के हिसाब से कार्य-कारण, प्रमाण-प्रमेय वगैरह की नयी व्यवस्था करना जरूरी है।
यहाँ एक प्रश्न यह उठ खड़ा होता है कि क्या यह दर्शन का काम है ? एक मत है कि दर्शन का यह काम नही है। दर्शन को अगर इन सबसे वास्ता नहीं तो वैसे दर्शन से हमारा कोई वास्ता नहीं। वह भाषा-विश्लेषण बहुत गम्भीर है और उसका अपना स्वाद है, लेकिन हमारे बहुत काम का नहीं हैं। मैं मानता हूँ कि दर्शन का
परिसंवाद-३
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