Book Title: Bharatiya Chintan ki Parampara me Navin Sambhavanae Part 2
Author(s): Radheshyamdhar Dvivedi
Publisher: Sampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
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भारतीय चिन्तन की परम्परा में नवीन सम्भावनाएं
किन्तु अस्तित्वसारशून्यतावादी उस शैली में अपना मत इस प्रकार प्रकाशित करेगा -- 'शून्यमदः, शून्यमिदं शून्याच् छून्यमुदच्यते । 'शून्यस्य शून्यमादाय शून्यमेवावशिष्यते' ||
गीता में 'सत्' शब्द का अर्थ सत्यं शिवं सुन्दरं जैसा किया गया प्रतीत होता है-'सद्भावे, साधुभावे च सदित्येतत् प्रयुज्यते;
'प्रशस्ते कर्मणि तथा सच्छब्दः पार्थ ! युज्यते ॥ १
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बुद्ध 'सर्वं दुख की घोषणा कर अस्तित्वसारशून्यता- दृष्टि का ही परिचय देते प्रती होते हैं । शोपेनहायर उनके साथ हैं । कई अस्तित्ववादी भी उनका साथ देते प्रतीत होते हैं। एक दृष्टि के अनुसार अस्तित्व मूलतः, तत्त्वतः, शुभ है, और दूसरी दृष्टि के अनुसार अशुभ ।
भारतीय दृष्टि अस्तित्व की प्रतीयमान अशुभता, दुःखता के परिहारार्थ कर्मसिद्धान्त का आश्रय लेती है । कर्मवादी यह मान कर चलते प्रतीत होते हैं कि नीतिमत्ता और निसर्ग में पूरा-पूरा ताल मेल है, यहाँ तक कि निसर्ग-जगत् ( natural order ) नीति जगत् ( moral order ) का अनुचर मात्र है। वैशेषिकदर्शन के अनुसार प्रकृति का सारा क्रियाकलाप हमारे अदृष्ट ( धर्माधर्म ) से अनुशासित, परिचालित होता है, र योगदर्शन में जगत् को केवल योग और अपवर्ग का साधन माना गया है । " वस्तुतः नैतिक और नैसर्गिक कर्म में सामञ्जस्य की कल्पना इनीज़ की कल्पना, पूर्वस्थापित सामञ्जस्य (pre-established harmony) की याद ताजा कर देती है ।
वैदिक परम्परा में जगच्चक्र को इतना सार्थक व्याख्येय, बुद्धिगम्य और औचित्यपूर्ण माना गया है कि यहां त्रासद - काव्य तथा नाट्य ( tragedy ) का विकास ही नहीं हो सका । हमारे नाट्य में किसी भी श्रेष्ठ चरित्र, सत्पात्र का दुःखद अन्त अथवा उसमें अन्तरात्मा का संघर्ष, नहीं दिखाया जाता, जो पश्चिमी नाटक की विशेषता है । यहाँ सब कुछ भले के लिए है, अतः त्रास-बोध ( Tragic sense ) के
१. लेखक कृत 'गालिब स्यार्थं गौरवम्'
२. गीता ४७.२६
३. वैशेषिक-सूत्राणि ५.१.१५ । ५.२.२ ! ७,१३,१७
४. योग-सूत्राणि २.१८
परिसंवाद - ३
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