Book Title: Bharatiya Chintan ki Parampara me Navin Sambhavanae Part 2
Author(s): Radheshyamdhar Dvivedi
Publisher: Sampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
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संस्कृति दर्शन - सम्भावनायें और स्वरूप
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अस्वीकार नहीं परम्परा का अभिनत्रीकृत व्याख्यान है । यह ज्ञान साधक के सुसंस्कृत व्यक्तित्व से भिन्न नहीं है, क्योंकि वह साधक के व्यक्तित्व को परिवर्तित कर उसे अपने साँचे में ढाल देता है । इस स्तर पर ज्ञान और ज्ञाता में, कथनी और करनी में कोई भेद नहीं रह जाता। यह ज्ञान बौद्धिकदर्शन नहीं, संस्कृति का दर्शन है क्योंकि वह मानवीय संस्कृति के शाश्वत सत्यों का ही प्रतिबिम्ब है । हमारी दृष्टि में दर्शन शास्त्र से द्रष्टा के साात्कार जन्य अनुभव का अधिक महत्व है और दार्शनिक चिन्तकों से बड़ा दार्शनिक मैं उन्हें मानता हूं जो अपने साक्षात्कारजन्य अनुभूत सत्य को स्वं जीते हैं । इसी कारण मैं ऋग्वेद के वाक् सूक्त के द्रष्टा वृहस्पति ( मण्डल १० - - सूक्त ७१ ) को तथा वाक्यपदीयम् के कर्त्ता भतृहरि को, पाणिनि और यास्क से, हिरण्यगर्भ सूक्त (ऋ०१० -१२२) के द्रष्टा हिरण्यगर्भ, नासदीय सूक्त (ऋ०१० - १२९ ) के द्रष्टा प्रजापति परमेष्ठी और पुरुषसूक्त ऋ १०- 。) के द्रष्टा नारायण को वेदान्त, मीमांसा, न्याय और वैशेषिक के प्रवर्तक दार्शनिकों से अधिक महान समझता हूँ। मेरी दृष्टि में उपनिषदों के चिन्तक जनकयाज्ञवल्कय आदि कुमारिलभट्ट और शंकराचार्य से गौतमबुद्ध, नागार्जुन और दिङ्नाग से तथा महावीर, उदयन और कुन्दकुन्दाचार्य से अधिक महान दार्शनिक हैं । मैं कण्हपा, गोरखनाथ, रामानन्द, कबीर, नानक और तुलसी को किसी भी दार्शनिक से अधिक महान समझता हूं, आधुनिक युग में महर्षि अरविन्द, स्वामी विवेकानन्द, स्वामी रामतीर्थ, रवीन्द्रनाथ ठाकुर, महात्मागांधी और निराला मेरी दृष्टि में राधाकृष्णन्, रानाडे तथा अन्य किसी दर्शन के प्राध्यापक विद्वान से बड़े दार्शनिक थे । इस प्रकार जो दर्शन जीवन की चिरन्तन समस्याओं को सुलझाने की जगह स्वयं दार्शनिक को ही सांसारिक प्रपंचों में उलझाकर भटकता रहे, वह दर्शन नहीं, दर्शन की जड़ प्रतिमा मात्र है ।
उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि बौद्धिक विवेचना वाले समस्त शास्त्र, जिनमें दर्शन शास्त्र भी सम्मिलित है, मानव की मुक्ति के चरम साधक नहीं है । आन्तरिक भय, बाह्यसंत्रासः, अन्तर्द्वन्द्व, बाह्यसंघर्ष, आत्मपीड़न और संवेदनशून्यता की समस्याओं का समाधान किसी भी बुद्धिवादी शास्त्र के पास हो ही नहीं सकता । पश्चिमी देशों में आज इस बुद्धिवाद की असफलता सिद्ध हो चुकी हैं। वैज्ञानिक और औद्योगिक उन्नति की होड़ में पश्चिम का मानव अपनी समस्त आत्मिक शान्ति और मानसिक संतुलन खो बैठा है । उसे यह भय हो गया है कि आधुनिक वैज्ञानिक आविष्कारों द्वारा मनुष्य जाति का संहार किसी भी क्षण हो सकता है । अपार भौतिक सम्पदा संचित कर लेने के बाद वह देखता है कि उसे ऐतिहासिक परम्परा से
परिसंवाद - ३
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