Book Title: Bharatiya Chintan ki Parampara me Navin Sambhavanae Part 2
Author(s): Radheshyamdhar Dvivedi
Publisher: Sampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
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भारतीय चिन्तन की परम्परा में नवीन सम्भावनाएं
मानवीय गुणी की, आत्मिक सुख और शाति की जो संचित सम्पदा प्राप्त हुई थी उसे आज वह खो चुका है। पूर्व के देश भी, जो कभी धर्मदर्शन और आध्यात्मिकता के अग्रदूत थे, पश्चिमी देशों की बुद्धिवादी सभ्यता की चकाचौध में अपनी सांस्कृतिक धरोहर को भुला चुके हैं। उनके साधना-मार्ग और दार्शनिक चिंतन, उनकी समस्त आध्यात्मिक सम्पदा आज जड़ और प्रस्तरीभूत हो गयी है। इसी कारण इन देशों के लोग उसे अपने सिर का बोझ समक्षकर उतार फेंकना चाहते हैं। इसका कारण यह है कि इस समस्त आध्यात्मिक और साधनात्मक ज्ञान को हजारों वर्षों से केवल पुस्तकों में बन्द कर रखा गया है। उसे सामान्य जनता तक पहुंचाने और जीवन में उतारने का अभ्यास बहुत पहले छूट गया था और आज इन देशों के लोग भी उन्हीं मानसिक रोगों से ग्रस्त हैं जिनसे पश्चिम के लोग।
अतः आधुनिक मानव की मुक्ति का एक मात्र मार्ग यही है कि वह सबसे पहले मानव बने, वह अकुतोभय होकर मानवीय सत्यों का वरण करे। यह मार्ग सभ्यता का नहीं, संस्कृति का मार्ग है। आज हमें एक ऐसे दर्शन की आवश्यकता है जो बुद्धिवाद पर आधारित न हो, बल्कि आत्मसाक्षात्कार और आत्मोपलब्धि पर आधारित हो। आज की वैज्ञानिक और तर्काश्रित सभ्यता ज्ञान, विज्ञान और प्रविधि के सोपानों को पार करती हुई एक ऐसे बिन्दु पर आ पहुँची है, जहाँ आगे बढ़ने का अर्थ है अतल गर्त में गिरकर आत्महत्या करना। अतः मानवता को वहाँ से पीछे लौटाना होगा। उसे मानव जाति की उस सांस्कृतिक परम्परा का मार्ग दिखाना होगा जिसको मानव ने सहजात प्रवृत्ति और सहज ज्ञान द्वारा आदिम युग में कीट-पतंगों और पशु पक्षियों से सीखा था जिसे उसने वंश परम्परा द्वारा प्राप्त कर युग युग तक अपने जीवन को सुखमय और शान्तिमय बनाया था। सामाजिक सहयोग, सामाजिक न्याय, विश्व-मैत्री, प्राणिमात्र के प्रति-प्रेम, अनन्त करुणा और औदार्य, विशाल सहृदयता और अक्षय आत्म शक्ति का जो स्रोत मानव जाति को उपलब्ध था उसके अमृततुल्य जल को पीकर मानव रासक्षत्व की शक्तियों से निरन्तर लड़ता हुआ भी सुखपूर्वक जीवित रह सका। अपनी इस अनन्त यात्रा में उसने जिन विद्याओं और कलाओं को आयत्त किया था, वे उसको आत्मिक शान्ति प्रदान करने वाली थीं किन्तु जिस दिन उन विद्याओं और कलाओं को बौद्धिकता और तर्क के तारों से जोड़ दिया गया, उस दिन से उनका शक्ति स्रोत सूखने लगा। वे विद्या न रहकर शास्त्र बन नयीं, कला न रहकर यंत्र हो गयी और रसात्मक तथा आनन्दमय' न रहकर नीरस और दुःखमय बन गयीं।
संस्कृतिशून्यता का ही यह परिणाम हुआ कि आज इस देश के लोगों का नैतिक पतन चरम सीमा तक पहुंच गया है। महात्मागांधी ने सत्य और अहिंसा
परिसंवाद-३
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