Book Title: Bharatiya Chintan ki Parampara me Navin Sambhavanae Part 2
Author(s): Radheshyamdhar Dvivedi
Publisher: Sampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
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भारतीय चिन्तन परम्परा में नवीन दर्शनों की सम्भावनाएं
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भारतीय दर्शन १२वीं १३वीं शती के बाद कोई स्वतन्त्र चिन्तन नहीं दे सका। इसके बाद का भारतीयदर्शन केवल टीका, उपटीकाओं का ही दर्शन है मौलिक नही । लेकिन इसके पूर्व कुमारिल, शकराचार्य, दिङ्नाग और सिद्धसेन का दर्शन वास्तव में दर्शन था। वह टीका टिप्पणीमात्र नहीं था। १२वीं शती के बाद भारतीय दर्शन भी धर्म का दास बन गया। जैसे मध्ययुग में पाश्चात्यदर्शन धर्म का दास बन गया था और वह भी समग्र जीवन का दर्शन न बनकर एकांगी बन गया था। यद्यपि पश्चिम के धर्मदार्शनिकों ने ग्रीक विचारों के साथ ईसाईयत के विचारों को जोड़ा, लेकिन इससे दर्शन का उपकार नहीं हुआ। इसलिये दर्शन का उपकार विज्ञान के साथ सम्बन्ध जुटने पर हुआ। यह काम पादरी कोपरनिकस ने किया। जो भौतिकवादी विज्ञान का जनक माना जाता है। पश्चिम में दार्शनिक विज्ञान का अध्ययन करते थे तथा वैज्ञानिक भी दर्शन का चिन्तन करते थे। न्यूटन दर्शन का आचार्य था तथा प्राकृतिक विज्ञान पढ़ाता था, जब कि कान्ट फिजिक्स का अध्यापक था और दर्शन पर विचार करता था। इसी प्रकार पाश्चात्य दार्शनिकों ने मैथेमेटिक्स तथा मनोविज्ञान पर भी अध्ययन जारी रखा है। इसीलिये पश्चिम का दर्शन विज्ञान से प्रभावित रहा तथा विज्ञान से समन्वित रहा जबकि भारतीय दर्शन इस प्रकार का नहीं है।
वैज्ञानिक दृष्टि के कारण ही पाश्चात्य दार्शनिकों ने अपना चिन्तन वैज्ञानिकतापूर्ण रखा, तभी तो पश्चिम में यह दियों पर हुए अत्याचारों को प्रतिक्रिया में मानव के मौलिक अधिकारों पर चिन्तन प्रारम्भ हुआ तथा प्रथम महायुद्ध की भीषण नृशंसता से प्रभावित होकर साम्राज्यवादी रसेल समाजवादी बना। अभी हाल में ही दक्षिण वियतनाम तथा हिन्द चीन पर हुए नृशंस हमलों से ऊबकर अमेरिका के दार्शनिकों ने अमेरिका के आदर्शों के प्रति आत्मविश्लेषण का एक नया आन्दोलन उठाया था जिसके नेता नोम चाम्स्की थे। लेकिन भारत में देश के विभाजन के समय हुए खून खराबों पर, स्त्रियों पर सदियों से चली आ रही नृशंसता पर, हरिजनों के साथ के अमानुषिक व्यवहारों पर तथा बंगला देश में हुए अमानुषिक अत्याचारों पर कभी कोई दार्शनिक चिन्तन नहीं उभरा। हम मानव के नृशंसात्मक हत्याओं के समय भी ब्रह्मवाद, शून्यवाद तथा अनेकान्तवाद में ही पड़े रहे तथा अब भी हमारा चिन्तन इन्हीं के इर्दगिर्द चलता है। हम आज भी प्रत्यक्ष पर तार्किक प्रणाली से ही विवेचनात्मक विश्लेषण करते हैं। जबकि प्रत्यक्ष का वैज्ञानिक विवेचन मनोविज्ञान में अच्छी प्रकार से चल रहा है। हमारा दार्शनिक आज भी मंगलाचरण से कार्यासिद्धि, शब्द की नित्यता से अपौरुषेयत्व प्रतिपादन, पिठरपाक एवं पीलुपाक से घट के पके
परिसंवाद-३
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