Book Title: Bharatiya Chintan ki Parampara me Navin Sambhavanae Part 2
Author(s): Radheshyamdhar Dvivedi
Publisher: Sampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
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भारतीय चिंतन परम्परा में नये दर्शनों का
दिशा-निर्देश प्रो० ब्रजवल्लभ द्विवेदी
दर्शन ही नहीं, प्रायः सभी शास्त्रों का अध्ययन प्राचीन भारतीय परम्परा में ह्रासवाद के आधार पर आधुनिक पाश्चात्य परम्परा में विकासवाद के आधार पर किया जाता है। केवल धारणा ही नहीं, यह वस्तुस्थिति है कि ज्ञान-विज्ञान की प्रत्येक शाखा में भारत में पूर्ववर्ती काल' में जिस तरह के प्रौढ़ ग्रन्थों का निर्माण हुआ, परवर्ती काल में बह स्थिति देखने को नहीं मिलती। समस्त सूत्रग्रन्थ, पतंजलि का महाभाष्य, कौटिल्य का अर्थशास्त्र, भरत का नाट्यशास्त्र, वात्स्यायन का कामशास्त्र, चरक-सुश्रुत आदि संहितायें-ये सब ऐसे ग्रन्थ हैं कि परवर्ती काल में इनके टक्कर का कोई ग्रन्थ नहीं बना। इन ग्रन्थों के रचयिता त्रिकालज्ञ ऋषि है। इस पृष्टभूमि में यह सोचना स्वाभाविक है कि शास्त्र की परम्परा का ह्रास हो रहा है। मध्यकालीन महान् दार्शनिक आचार्य उदयन को इसीलिये लिखना पड़ा
जन्मसंस्कारधृत्यावेः शक्तः स्वाध्यायाकर्मणोः।
ह्रासदर्शनतो ह्रासः सम्प्रदायस्य मीयताम् ॥ इसके विपरीत आधुनिक पाश्चात्य दृष्टिकोण विकासवाद के आधार पर सभी शास्त्रों का अध्ययन करना है। यूनान और रोम के चिंतकों का ये ऋषितुल्य आदर करते हैं, किन्तु इनका दर्शन सुकरात और अरस्तू में ही समाप्त नहीं हो जाता। ज्ञान और विज्ञान की प्रत्येक शाखा में, चिन्तन के विभिन्न क्षेत्रों में, यूनान और रोम का ही नहीं, दुनियां की सभी प्रबुद्ध चिन्तन-धाराओं की सहायता लेकर इन्होंने उन-उन शास्त्रों का विकास तो किया ही हैं, साथ ही ज्ञान और विज्ञान के क्षेत्र में क्रान्तिकारी उद्भावनायें की हैं, जिनसे कि आज की सारी दुनियाँ लाभान्वित ही नहीं, संचालित भी है।
परिसंवाद-३
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