Book Title: Bharatiya Chintan ki Parampara me Navin Sambhavanae Part 2
Author(s): Radheshyamdhar Dvivedi
Publisher: Sampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
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संस्कृति-दर्शन सम्भावनायें और स्वरूप
विहीन, ततीत और अप्रमेय होता है । इस स्तर पर जो अनुभव होता है, वह लगभग अनिर्वचनीय होता है । किन्तु अनिर्वजनोय और अप्रमेय होते हुए भो वह अतीन्द्रिय और अलौकिक नहीं होता । इस ज्ञान का मूल यथार्थं जगत में ही होता है, पर उसकी मूर्धा परोक्ष सत्य का स्पर्श करती है । इस तरह यह ज्ञान प्रत्यक्ष और परोक्ष लोक के बीच सेतु के रूप में होता है । वह साधन को, व्यक्तित्व को सामान्य रूप से पूर्णतया परिवर्तित कर देता है जिसमें वह सामान्य लोगों से भिन्न कोटि का व्यक्ति बन जाता है, ऐसे हो व्यक्तियां को सिद्ध महात्मा, सिद्ध कलाकार और कवि, सिद्ध सन्त और सिद्ध विद्वान कहा जाता है । वे परप्रत्ययनेय बुद्धि वाले नहीं होते, उनका निजी विशिष्ट अनुभव होता है जिसे वे सर्वसुलभ बनाना चाहते हैं, पर सब में उसे ग्रहण की क्षमता नहीं होती । अतः विभिन्न लोग उस ज्ञान को अपनी-अपनी सभ्यता और पात्रता के अनुसार अलग-अलग ढंग से और अलग-अलग रूप में ग्रहण करते हैं । चेतना के अनुभवों के उपर्युक्त पाँच स्तरों के क्रम में यह ध्यान देने की बात है कि प्रथम और अन्तिम स्तर में बौद्धिक आयास और तार्किकता का उपयोग बिल्कुल नहीं होता किन्तु इन दोनों स्तरों में मानवीयता और नैतिकता का महत्व बहुत होता है । वंशानुक्रम द्वारा उपलब्ध ज्ञान बुद्धि का आश्रय अवश्य लेता है, किंतु उससे बौद्धिक विवेचना का आधिक्य नहीं होता । इस कारण उसमें सहजता के साथ सामाजिक सहयोग की प्रवृत्ति होती है। यह ज्ञान प्रयोक्ता से व्यक्तित्व में समा गया रहता है जिससे उसके ज्ञान के स्तर और उसकी सांस्कृतिक चेतना में सामंजस्य की स्थिति होती है । तृतीय स्तर में बौद्धिक प्रयास और तार्किकता की अधिकता दिखाई पड़ने लगती है, परिणाम स्वरूप यह ज्ञान ग्रहीता के बौद्धिक धरातल पर पहुँच कर वहीं रुक जाता है । ग्रहीता इस ज्ञान का उपयोग तो अपने जीविकोपार्जन के लिए करता है अथवा सामाजिकहित के उपयोग के लिए; किन्तु उस ज्ञान से उसका व्यक्तित्व अप्रभावित रहता है अथवा यों कहें कि उस ज्ञान में मनुष्य के व्यक्तित्व का निर्माण करने वाला कोई तत्व ही नहीं होता । परिणाम स्वरूप ऐसा शास्त्रीयज्ञान समाज का जितना हित करता है, उससे कहीं अधिक उसका अहित करता है । वह मनुष्य का बौद्धिक विकास तो बहुत अधिक करता है किन्तु साथ ही उसकी नैतिक और सौन्दर्य बोधात्मक प्रवृत्तियों की जड़ों को काट देता
प्रबिधि के शास्त्रों की यही
है जिससे वे सूख कर मर जाती हैं । ज्ञान-विज्ञान और बिडम्बना है कि जितना ही अधिक उनका विकास होता जा रहा है, मनुष्य जाति में मानसिक शान्ति और आत्मिक आनन्द का उतना ही अधिक अभाव होता जा रहा है ।
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परिसंवाद - ३
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