Book Title: Bharatiya Chintan ki Parampara me Navin Sambhavanae Part 2
Author(s): Radheshyamdhar Dvivedi
Publisher: Sampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
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भारतीय दर्शनों का नया वर्गीकरण परिचर्चा का संक्षिप्त विवरण
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है | वैसे वेदविहितकर्मानुष्ठान ही धर्म है। दर्शन को धर्म से अलग बताने का क्या तात्पर्य है ? क्या धर्म विना दर्शन के चल सकता है ? दार्शनिक ज्ञान भी आगमोपदेश के आधार पर साक्षात्कृत होता हैं । निष्काम कर्म के द्वारा ज्ञान प्राप्त होने पर अज्ञान का निवर्तन होता है । भारतीय दर्शन कर्मों के विधान तथा अननुविधान को बतलाता हुआ अभ्युदय साधन की ओर प्रवृत्त करता है । यहीं से धर्मं एवं दर्शन बनता है ।
दर्शन के प्रमाण के लिए आगम की आवश्यकता है क्योंकि विना नियामक के कार्य सम्पन्न नहीं होता। इसी प्रकार बिना आगमिक ( शास्त्रीय ) प्रमाणों के दर्शन द्वारा साक्षात्कृत वस्तु का प्रमाणिक परिचय नहीं हो सकता ।
प्रो० रामशंकर त्रिपाठी ( बौद्धदर्शनविभागाध्यक्ष सं० सं० वि० वि० ) ने कहा कि सत्य की परीक्षा करना दर्शन का काम है। किसी आगम पर आग्रहशील होकर सत्य का अधिगम नहीं हो सकता । सच में तो मानव को चित्तमलों को दूर कर बुद्धि के द्वारा अवितथ अर्थ को ग्रहण करना चाहिए । यही दर्शन का विषय है ।
श्री सुधाकर दीक्षित (सं० सं० वि० वि० वाराणसी) ने कहा- रागद्वेष से मुक्ति के लिए अन्त:करण की शुद्धि की आवश्यकता है । और यह विभिन्न यौगिक साधनाओ आदि से सम्भव है । सत्यान्वेषण ही दर्शन है तथा सत्य ही धर्म है । यह चाहे वेद प्रतिपादित हो या अन्य प्रतिपादित हो । परन्तु यह दर्शन है इस प्रकार प्रकार धर्म और दर्शन का अटूट सम्बन्ध है ।
डा० श्रीराम पाण्डेय ( न्यायविभागाध्यक्ष सं० सं० वि० वि० ) ने कहा धर्म का दर्शन के साथ नित्य का सम्बन्ध है । तत्त्व का निर्णय धार्मिक हो कर सकता है । धर्म तथा तत्त्व पूर्णत: निर्णीत होते हैं । तत्त्व की उपपत्ति ज्ञान द्वारा होती है । ज्ञान अधिकारी को दिया जाता है, जिसका अन्तःकरण शुद्ध हो । यह भारतीय दर्शन के विवेचन का क्रम है ।
काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के दर्शन विभाग के उपाचार्य डा. केदारनाथ मिश्र ने कहा -- चिन्तन दो प्रकार का होता है एक शास्त्र - प्रतिबद्ध दूसरा मुक्त या स्वतन्त्र । सम्प्रदायानुसारी चिन्तन शास्त्रप्रतिबद्ध होता है । दर्शन यदि स्वतन्त्र चितन बन भी जाय, तब भी धर्म के बिना उससे कोई बात नहीं बन पायेगी । पर सम्प्रदाय मूलक चिन्तन में परिपूर्णता मान ले, तब तो विचार आगे ही नहीं बढ़ पायेंगे ।
परिसंवाद - ३
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