Book Title: Bharatiya Chintan ki Parampara me Navin Sambhavanae Part 2
Author(s): Radheshyamdhar Dvivedi
Publisher: Sampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
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भारतीय चिन्तन की परम्परा में नवीन सम्भावनाएं दर्शन तथा धर्माग्रह एवं वादाग्रह :-चिन्तन के क्षेत्र में परम्परा न तो अपराध है और न तो किसी भी स्थिति में उससे घबड़ाने को बात है। दार्शनिक चिन्तन की विशाल परम्परा ने हमारे तत्त्वचिन्तकों को विश्व के ज्ञानाकाश का ध्र वतारा स्वीकार किया था। यह परम्परा हमारे चिन्तन-वर्चस्व का प्रतीक है। हाँ, आज हमारे चिन्तन की प्रखरता की कसौटी यह होगी कि हम परम्परा की जकड़न को तोड़कर परिवर्तन को कितना अवसर देते हैं। इस प्रकार परम्परा और परिवर्तन के बीच क्या तारतम्य एवं क्या सामंजस्य हो ? इसे निर्धारित करना होगा। इसके लिये यह भी आवश्यक होगा कि भारतीय सन्दर्भ में हम धर्म और दर्शन का सम्बन्ध निश्चित करें और इस सम्बन्ध के उठते प्रश्नों का समाधान करें। मान लें कि दार्शनिक चिन्तन को धर्मातीत या धर्म-निरपेक्ष होना चाहिए। किन्तु प्रश्न उठता है कि क्या धर्म को भी दर्शन-निरपेक्ष होना चाहिए ? आधुनिक सन्दर्भ में विशेषकर भारतीय संदर्भ में सम्भवतः यह ठीक नहीं होगा। सारा देश धर्मों एवं उपधर्मों का, सम्प्रदायों एवं उपसम्प्रदायों का संग्रहालय सा बन चुका है। इस शताब्दी में नये धर्मों एवं सम्प्रदायों के निर्माण में तो और भी तीब्रता आ चुकी है। इस स्थिति में इनके औचित्य का प्रश्न उठता है। औचित्य का निर्धारण यदि दर्शन नहीं करेगा तो उनके धर्म्य और अधर्म्य होने का विश्लेषण कहाँ होगा? और जनता के कोमल एवं भावुकतापूर्ण धार्मिक वृत्तियों को पाखण्ड से कौन बचायेगा?
इसके लिये यह आवश्यक होगा कि हम यह निर्णय लें कि धर्मों के औचित्य का निर्धारण करना दर्शन का क्षेत्र है और धर्म के निर्णय में दर्शन का प्रामाण्य है। एक सीमा तक यह कार्य प्राचीन दर्शनों ने भी किया है किन्तु उनका कार्य धर्म के दरबार में वकील का था, न्यायाधीश का नहीं। धर्मों से प्रतिबद्ध दार्शनिकों ने अपनेअपने धर्मों के औचित्य एवं श्रेष्ठता को सिद्ध करने के लिये ही अपनी उत्कृष्टतम प्रतिभा का उपयोग किया। भारतीय तत्त्वमीमांसा और प्रमाण-मीमांसा के इस परम्परागत अभ्यास में अब उल्लेखनीय परिवर्तन लाने की बात सोचनी चाहिये । तभी यह स्थिति आयेगी जिसमें भारतीय दार्शनिक मुक्त-चिन्तन कर सकेंगे।
मुक्त-चिन्तन के लिये धर्म निरपेक्षता एक पुरानी बात हो चुकी है यद्यपि परम्परागत दर्शनशास्त्री आज भी उससे विरत नहीं हुए। अनेकानेक कारणों से सर्वत्र ही धर्म की पकड़ कम हो चुकी है। किन्तु टूटते हुए भी उसने एक दूसरा सुदृढ़ घेरा बना लिया है। वह है वादों या सिद्धान्तों के आग्रह का । जहाँ तक नवीन चिन्तन को कुण्ठित करने का प्रश्न है, वादों का आग्रह अपनी सम्पूर्ण तार्किकता के साथ धर्मों के आग्रह के समान ही काम करता है। मानवी प्रतिभा के क्षेत्र में वादों
परिसंवाद-३
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