Book Title: Bharatiya Chintan ki Parampara me Navin Sambhavanae Part 2
Author(s): Radheshyamdhar Dvivedi
Publisher: Sampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
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आधुनिक पाश्चात्यदर्शन की गतिविधि
प्रो० डा. रमाकान्त त्रिपाठी भारतीय दर्शन का जानने वाला कोई व्यक्ति यदि आज के पाश्चात्य दर्शन पर दृष्टिपात करें तो उसे एक विचित्र अनुभव होगा। एक ओर तो उसे ऐसा जान पड़ेगा कि चारों ओर नये-नये विचारक उभर रहे हैं. और विचार जगत में नवीनता की खोज में एक हलचल मची हुई है। दूसरी ओर उसे यह जान पड़ेगा कि वहाँ का विचारक यद्यपि स्वतन्त्र विचारक कहलाना चाहता है फिर भी वह अनुभववाद की जंजीर में जकड़ा हुआ है इन्द्रिय-जन्य अनुभव और विज्ञान के आगे जाने की उसमें न सामर्थ्य है न प्रवृत्ति। साथ ही उसे अपने दर्शन की प्रयोजनहीनता का भी अनुभव होता है। अतः दर्शन की सामाजिक उपयोगिता क्या है अथवा दर्शन की कोई उपयोगिता है या नहीं। ये प्रश्न बार-बार उठाये जा रहे हैं। और कभी-कभी ऐसा लगता है कि यदि दुनियाँ से सभी दर्शन मिटा दिये जायें तो भी कोई विशेष क्षति न होगी। संक्षेप में भारतीय दार्शनिक को ऐसा लगेगा कि पाश्चात्य देशों में दर्शन की विधि के विषय में, दर्शन के उद्देश्य के विषय में और दर्शन की उपयोगिता के विषय में वैचारिक उथल-पुथल मची हुई है और एक प्रकार की दिशा-हीनता का साम्राज्य फैला है । व्यक्तिवाद, अनुभववाद, वैचारिकप्रयोगवाद, किसी निश्रित लक्ष्य का अभाव, किसी निश्चित शोध विधि का अभाव, जीवन के विषय में विशाहीनता का भाव--ये सब पाश्चात्य दार्शनिक जगत् के लक्षण हैं।
इसके ठीक विपरीत भारतवर्ष में दार्शनिक मतभेद के बावजूद भी कुछ ऐसी मान्यतायें हैं जो प्रायः सभी दर्शनों में पाई जाती है। जीवन बंधन है, वह अज्ञान के कारण है और उस अज्ञान को दूर करने के लिए ज्ञानको खोज दर्शन का लक्ष्य है। इस खोज में दर्शन न तो केवल इन्द्रिय-जन्य अनुभव तक सीमित रह सकता है और न तो केवल वैयक्तिक विचार के ही भरोसे रह सकता है। दर्शन को ऐसे व्यक्ति (आप्त पुरुष ) के निर्देश की आवश्यकता होती है जो लक्ष्य को प्राप्त कर चुका हो, क्योंकि वह लक्ष्य कोई सांसारिक लक्ष्य नहीं है जो सबको सुलभ हो। इस प्रकार भारतीय दर्शन में सत्य की खोज अज्ञानग्रस्त व्यक्ति की वैचारिक उछल-कूद
परिसंवाद-३
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